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प्रकार से देखना। यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि अच्छी प्रकार से देखने का क्या तात्पर्य है? अच्छी प्रकार से देखने का तात्पर्य तो यह है कि विकार-रहित दृष्टि से देखना। आँख की विकृति हमारी चक्षु-इन्द्रिय के बोध को विकृत कर देती है। यथापीलिया का रोगी सफेद वस्तु को भी पीली देखता है, ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक जीवन में राग-द्वेष हमारी दृष्टि को विकृत कर देते हैं, उनकी उपस्थिति के कारण हम सत्य का उसके यथार्थ रूप में दर्शन नहीं कर पाते हैं। जिस पर हमारा राग होता है उसके दोष नहीं दिखाई देते हैं और जिससे द्वेष होता है उसके गुण दिखाई नहीं देते है। रागद्वेष आँख पर चढ़े रंगीन चश्मों के समान हैं जो सत्य को विकृत करके प्रस्तुत करते हैं। अतः सामान्य रूप से सम्यक् दर्शन का अर्थ है - राग और द्वेष अर्थात् पूर्वाग्रह के घेरे के ऊपर से उठकर सत्य का दर्शन करना। राग और द्वेष के कारण ही आग्रह और मतान्धता पनपती है और वही हमारे सत्य के बोध को रंगीन या दूषित बना देती है। अत: आग्रह और मतान्धता से रहित दृष्टि ही सम्यक्-दृष्टि है। सत्य के पास उन्मुक्त भाव से जाना होता है। जब तक हम राग-द्वेष, मतान्धता, आग्रह आदि से ऊपर उठकर सत्य को देखने का प्रयत्न नहीं करते हैं तब तक सत्य का यथार्थ स्वरूप हमारे सामने प्रकट नहीं होता है। अतः आग्रह और पक्षपात से रहित दृष्टि ही सम्यक् दर्शन है।
जैन परम्परा में सम्यक् दर्शन शब्द तत्त्व, श्रद्धा तथा देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा के अर्थ में भी रूढ़ है। लेकिन हमें यह समझ लेना चाहिए कि जब तक दृष्टि के निर्दोष और निर्विकार होने पर सत्य का यथार्थ रूप में दर्शन होगा और उस यथार्थ बोध पर जो श्रद्धा या आस्था होगी वही सम्यक्-श्रद्धा होगी।
सम्यक् दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ उसका परवर्ती अर्थ है और भक्तिमार्ग के प्रभाव से जैनधर्म में आया है। मूल अर्थ तो दृष्टिपरक ही है। लेकिन श्रद्धापरक अर्थ भी साधना के लिए कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। यथार्थत: आत्म-बोध और अपनी विकृतियों को समझने के दो ही रास्ते हैं। या तो हम स्वयं आग्रह, मतान्धता और राग-द्वेष के घेरे से ऊपर उठकर तटस्थ भाव से उनके द्रष्टा बने, स्वयं अपने में झाँके और अपने को देखे अथवा फिर जिसने वीतराग दृष्टि से सत्य को देखा है उसके वचनों पर विश्वास करें। वीतराग के वचनों पर विश्वास या श्रद्धा - यह सम्यक् दर्शन का दूसरा अर्थ है। जिस प्रकार हमें अपनी बीमारी को समझने के लिए दो ही मार्ग होते है, एक तो जीवन के पूर्वापर अनुभवों की तुलना के द्वारा स्वयं यह निश्चय करें कि हमारे स्वास्थ्य में कोई विकृति है या फिर जो डॉक्टर या विशेषज्ञ हैं उनकी बात पर विश्वास करें। उस प्रकार जीवन के सत्य का या तो स्वयं अनुभव करें या फिर जिन्होंने उसे जाना है उसके वचनों पर विश्वास करें। अत: सम्यक् दर्शन का यह दूसरा अर्थ हमें यह बताता है कि यदि हम स्वयं जीवन के सत्य को और अपनी विकृतियों को समझने में सक्षम नहीं हैं तो हमें
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