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चाहे एक बार हम इस बात को मान भी लें कि जीवन में पूर्णतया अनासक्ति या निर्ममत्व लाया नहीं जा सकता, किन्तु साथ ही हमें यह भी मानना ही होगा कि यदि हम अपने जीवन को और मानव समाज को दुःख और पीड़ाओं से ऊपर उठाना चाहते है, तो ममता और कामना के त्याग अथवा उन पर नियंत्रण के अतिरिक्त, अन्य कोई विकल्प भी नहीं है। जीवन में जब तक ममता की गाँठ टूटती नहीं है, आसक्ति छूटती नहीं है, कामना (तृष्णा) समाप्त नहीं होती है, तब तक आत्मिक शान्ति और सुख सम्भव नहीं है। यदि हमें सुख और शान्ति की अपेक्षा है, तो निश्चित रूप से आसक्ति और ममता की गाँठ को खोलना होगा और जीवन में समभाव और अनासक्ति को लाना होगा। कर्मकाण्ड साधना का लक्ष्य नहीं
सामान्यतया धर्म साधना का सम्बन्ध कुछ विधि-विधानों, क्रियाकाण्डों, आचारव्यवहार के विधि-निषेधों के साथ जोड़ा जाता है। हमसे कहा जाता है यह करों, यह मत करों किन्तु हमें यह स्मरण रखना है कि ये धार्मिक साधन के मूल-तत्त्व नहीं है, यद्यपि मेरे कहने का यह तात्पर्य भी नहीं है कि धार्मिक जीवन में इनकी कोई उपयोगिता या सार्थकता नहीं है। आचार व्यवहार या कर्मकाण्ड धार्मिक जीवन में इनकी कोई उपयोगिता या सार्थकता नहीं है। आचार-व्यवहार या कर्मकाण्ड धार्मिक जीवन के सदैव से ही आवश्यक अंग रहे है और सदैव रहेंगे। किन्तु हमें एक बात का स्मरण रखना होगा कि यदि हमारे इन धार्मिक कहे जाने वाले क्रियाकाण्डों, विधि-विधानों या आचारनियमों से हमारी आसक्ति या ममता छूटती नहीं है, चाह और चिन्ता में कमी होती नहीं है, आकुलता समाप्त होती नहीं है, जीवन में विवेक एवं आनन्द का प्रस्फुटन नहीं है, तो ये सब निरर्थक है, उनका कोई मूल्य नहीं है। इनकी कोई उपादेयता नहीं। ये साधन हैं और साधन का मूल्य तभी तक है जब तक ये साध्य की उपलब्धि में सहायक होते हैं। आइये परखें और देखें कि धर्म साधना के उपाय कौन से हैं और इनकी मूल्यवत्ता क्या है?
सम्यग्दर्शन का स्वरूप धर्म साधना के तीन मुख्य अंग हैं - भक्ति, ज्ञान और कर्म। जैन परम्परा में इन्हें ही क्रमशः सम्यक-ज्ञान सम्यक्-चारित्र कहा गया है। इनमें सबसे पहले हम सम्यक दर्शन के स्वरूप पर विचार करेंगे। वस्तुतः सम्यक्-दर्शन शब्द सम्यक्+दर्शन - इन दो शब्दों से मिलकर बना है। जिसका सीधा और सरल अर्थ है - सही ढंग से या अच्छी
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