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________________ ही। धर्म के स्वरूप की चर्चा में हमने जो कुछ निष्कर्ष रूप में पाया था वह यह कि 'समता धर्म है और ममता अधर्म है। इसके साथ हमने यह भी देखा कि मनुष्य की व्यक्तिगत या सामाजिक जो भी पीड़ाएँ है, दुःख है, वे सब उसकी ममत्व बुद्धि, रागभाव और आसक्ति का परिणाम है। इसे हम इस प्रकार भी कह सकते है कि 'ममता दुःख का मूल है और समता सुख का मूल' । जीवन में ममता जितनी छूटेगी और समता जितनी प्रकटित होगी, उतना ही दुःख कम होगा और व्यक्ति आनन्द का अनुभव करेगा। ममता और तृष्णा को छोड़ने से ही जीवन में समा और सुख को पाया जा सकता है और दूसरे शब्दों में कहें तो धर्म को जीवन में जीया जा सकता है । किन्तु ममता या रागभाव का छूटना या छोड़ना अत्यन्त दुरूह या कठिन कार्य है। जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों के कारण हमारे जीवन में ममता और तृष्णा के तत्त्व इतनी गहराई तक पैठे हुए हैं कि उन्हें निकाल पाना सहज नहीं है। वीतराग, आसक्ति या वीततृष्ण होने की बा कही तो बड़ी सरलता से जा सकती है, किन्तु जीवन में उसकी साधना करना अत्यन्त कठिन है । अनेक बार यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि कोई व्यक्ति वीतराग, वीततृष्ण या अनासक्त होकर कैसे जीवन जी सकेगा? जब जीवन में ममता नहीं होगी, अपनेपन का बोध नहीं होगा, चाह नहीं होगी, तो व्यक्ति को जीवन जीने का कौन सा आकर्षण रह जाएगा। ममता और चाह (तृष्णा) वस्तुत: हमारे जीवन-व्यवहार के प्रेरक तत्त्व हैं। व्यक्ति किसी के लिए भी जो कुछ करता है, वह अपने ममत्व या रागभाव के कारण करता है, चाहे वह राग प्रशस्त हो या अप्रशस्त । अथवा वह फिर अपनी किसी इच्छा (तृष्णा) की पूर्ति के लिए करता है। यदि राग और तृष्णा के ये दोनों तत्त्व जीवन से निकल जाये तो जीवन नीरस और निष्क्रिय हो जायेगा। क्योंकि राग या ममता के कारण रस है और चाह के कारण सक्रियता, यद्यपि बौद्धिक दृष्टि से अनेक बार यह कहा जाता है कि आसक्ति, ममत्व या तृष्णा के अभाव में भी कर्तव्य-भाव और विवेक- युक्त करूणा के आधार पर जीवन जीया जा सकता है। एक ओर यह भी सत्य है कि अनासक्त होकर मात्र कर्तव्यबोध या निष्काम भाव से जीवन जीना कुछ बिरले लोगों के लिए सम्भव हो सकता है, जन सामान्य के लिए यह सम्भव नहीं है। किन्तु दूसरी ओर यह भी सत्य है कि ममता, आसक्ति या तृष्णा ही सभी दुःखों की जड़ है, संसार के सारे संघर्षों का कारण है । उसे छोड़े या उस पर नियंत्रण किये बिना न तो व्यक्तिगत जीवन में और न सामाजिक जीवन में सुख-शान्ति आ सकती है। यही मानव-जीवन का विरोधाभास है । एक ओर ममत्व और कामना (चाह) सरस एवं सक्रिय जीवन के अनिवार्य तत्त्व हैं तो दूसरी ओर वे ही दुःख और संघर्ष के कारण भी है। जैन और बौद्ध परम्पराओं में जीवन को जो दुःखमय कहा गया है उसका कारण यही है। ममत्व और कामना (तृष्णा) के बिना जीवन चलता नहीं है और जब तक ये उपस्थित हैं जीवन में सुख-शान्ति सम्भव नहीं है । Jain Education International 37 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001699
Book TitleDharma ka Marm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size8 MB
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