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वीतराग के वचनों पर श्रद्धा के सत्य को और अपन विकृतियों को समझने में सक्षम नहीं है तो हमें वीतराग के वचनों पर श्रद्धा रखकर उन्हें जान लेना चाहिए। क्योंकि एक बात निश्चित है कि जो रोग को रोग के रूप में जान लेता है वही रोग की चिकित्सा करवाता है और वही रोग से मुक्त होता है।
वस्तुत: आध्यात्मिक विकृतियों को जानने के लिए हमें तटस्थ भाव से अपने अन्दर झाँकना होता है, अपनी विकृतियों को देखना होता है। यही सम्यक् दर्शन है। वस्तुत: कोई व्यक्ति सम्यक् दृष्टि है या नहीं - इसकी पहचान उसका बाह्य जीवन नहीं है अपितु इसकी पहचान है कि वह अपनी विकृतियों को, अपनी कषायों को और अपनी राग-द्वेष की वृतियों को कितना और किस रूप में जान पाया है। वस्तुत: अपनी वृत्तियों का द्रष्टा ही सम्यक द्रष्टा है। सम्यक् दर्शन अपने आपका दर्शन है। अपनी वृत्तियों का
और अपनी भावनाओं का दर्शन है। वह अपने आपको पढ़ना और देखना है। वस्तुतः मैं सम्यक दृष्टि हूँ या नहीं - इसकी पहचान इतनी ही है कि मैं अपनी मनोवत्तियों को
और कमियों को कहाँ तक और कितना जान पाया हूँ। क्या मैं यह देख पाया हूँ कि मुझमें क्रोध, मान, माया और लोभ के तत्त्व अथवा राग-द्वेष के भाव कहाँ तक छिपे बैठे हैं।
वस्तुत: द्रष्टा या साक्षी भाव ही एक ऐसी अवस्था है जो हमें आध्यात्मिक विकृतियों से मुक्त कर सकता है। सम्यक्-दर्शन को साधना का मूल आधार कहने का तात्पर्य यही है कि जब तक व्यक्ति को अपनी वासनाओं और विकारों का बोध नहीं होगा तब तक उनके प्रति उसके हृदय में एक ग्लानि उत्पन्न नहीं होगी तब तक उनसे छुटकारा सम्भव नहीं है। क्योंकि मनोविकृतियाँ तभी पनपती है जबकि हम उनके द्रष्टा नहीं बनते हैं। आचारांग सूत्र में कहा गया है कि 'सम्यक् द्रष्टा कोई पाप नहीं करता। किन्तु यह बात हमारे सामने कुछ उलझन भी पैदा कर देती है क्योंकि शास्त्रों में अविरक्त सम्यक्-दृष्टि का भी उल्लेख है। अविरत सम्यक्-दृष्टि वह है जो अपनी विषय वासनाओं या मनोविकृतियों को जानकर भी उनसे अपने को मुक्ता नहीं कर पाता है। वैसे यह एक आनुभविक तथ्य भी है कि सत्य को जानकर भी अनेक बार उसका आचरण सम्भव नहीं होता। महाभारत में दुर्योधन कहता है - "मैं धर्म को जानता हूँ किन्तु उसका आचरण नहीं कर पाता हूँ। मैं अधर्म को भी जानता हूँ किन्तु उससे छुटकारा नहीं पा सकता हूँ।' किन्तु यहाँ हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसा जानना केवल औपचारिक जानना है। क्या कोई विष को विष के रूप में जानते हए भी उसका भक्षण कर सकता है? वस्तुतः बुराई को बुराई के रूप में जानते हुए भी उसमें लिप्त रहना, कम से कम उसका सही रूप में जानना तो नहीं का जा सकता। वह उस सत्य के प्रति हमारी निष्ठा का सूचक तो किसी भी स्थिति में नहीं माना जा सकता। यदि हम सत्य के प्रति निष्ठावान् हैं तो उसे हमारे जीवन व्यवहार में अभिव्यक्त होना चाहिए।
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