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वैसे जो आगम में यह कहा गया है कि सम्यक् दृष्टि कोई पाप नहीं करता - उसका भी अपना एक अर्थ है। देखना और करना -ये दोंनो ही मन की ही प्रवृत्तियाँ हैं और दोनों एक साथ सम्भव नहीं है। जिस समय मैं अपनी दुष्प्रवृत्तियों या अपने विषय-विकारों या वासनाओं का द्रष्टा होता है उसी समय मैं उनका कर्ता नहीं रह सकता है। इस बात को एक सामान्य उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है। मान लीजिए हम क्रोधित हैं। यदि उसी समय हम उस क्रोध के भाव को देखने का प्रयत्न प्रारंभ कर दें, उसके कारणों का विश्लेषण करना प्रारंभ कर दें, तो निश्चित ही हमारा क्रोध समाप्त हो जाएगा। क्रोध को देखना और क्रोध करना, यह एक साथ सम्भव नहीं है। जब भी व्यक्ति अपने मनोभावों का द्रष्टा बनता है, उस समय वह उनका कर्ता नहीं रह जाता है। जब भी हम वासनाओं में होते हैं, आवेश में होते हैं तब हम द्रष्टा भाव में नहीं होते हैं, अप्रमत्त नहीं होते है, आत्मचेतन नहीं होते है, और जब आत्मचेतन होते है, द्रष्टा होते हैं तो क्रोधादि विकारों के कर्ता नहीं होते। आत्मचेतन होना, द्रष्टा होना, अप्रमत्त होना, निष्पाप होना है। यही सम्यक् दर्शन है। जीवन में जब इस प्रकार का द्रष्टाभाव आता है तो वासनाएँ, विकार और आवेश अपने आप दूर होने लगते है। व्यक्ति निष्पाप और निर्विकार बनने लगता है। आवेश और तनाव शान्त होने लगते हैं। जीवन में शान्ति और आनन्द प्रकट हो जाते हैं। सम्यक् दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ और साधना के क्षेत्र में उसकी आवश्यकता
यदि हम सम्यक् दर्शन को तत्त्वश्रद्धान् या देव-गुरु-धर्म के प्रति श्रद्धा के अर्थ के रूप में लें तो भी साधना के क्षेत्र में उसकी उपयोगिता स्पष्ट है। साधना के क्षेत्र में श्रद्धा या आस्था के सम्बल के बिना प्रगति सम्भव नहीं है। व्यक्ति अपने गन्तव्य नगर के मार्ग को जानता हो किन्तु यदि उसे विश्वास न हो कि यही मार्ग उसे गन्तव्य तक पहुँचाएगा तो सम्भव है कि वह अपने पथ से विचलित हो जाए। आज हमारे जीवन के सारे व्यवहार और पारस्परिक सम्बन्ध आस्था के बल पर ही टिके हुए हैं। यदि मनुष्य समाज में पारस्परिक आस्था और विश्वास न हो तो उसके अनेक दुष्परिणम होते हैं। परिवार में पारस्परिक विश्वास न रहने पर परिवार भंग हो जाता है। यदि समाज में पारस्परिक अविश्वास का भाव न हो तो न केवल समाज टूटता है, अपितु उसमें पारस्परिक संघर्ष और हिंसा की दावाग्नि भी भड़क उठती है। आज विश्व के राष्टों में पारस्परिक विश्वास का अभाव ही हमारी विध्वंसक अस्त्रों की दौड़ का मूलभूत कारण है। आज मानव समाज में जो भी भय और आतंक का वातावरण बना हुआ है। उसका मूल कारण भी परस्पर एक-दूसरे के प्रति विश्वास का अभाव ही है। आस्था की औषधि मनुष्य के तनाव और भय को दूर कर सकती है।
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