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________________ है एवं जीवित रहती है। समता (निराकुलता) स्वाश्रित है इसीलिए स्वधर्म है, जबकि ममता और तज्जनित आकुलता पराश्रित है, इसीलिए विधर्म है, अधर्म है। जो स्वाश्रित या स्वाधीन है वहीं आनन्द को प्राप्त कर सकता है, जो पराश्रित या पराधीन है उसे आनन्द और शान्ति कहाँ? यहाँ हमें यह समझ लेना चाहिये कि पदार्थों के प्रति ममत्व भाव और उनके उपभोग में अन्तर है। धर्म उनके उपभोग का विरोध करता है। जो पराया है उसे अपना समझ लेना और मान लेना अधर्म है, पाप है, क्योंकि इसी से मानसिक शांति और चेतना का समत्व भंग होता है, आकुलता और तनाव उत्पन्न होते है। इसे ही शास्त्रों में अनात्म में आत्म बुद्धि या परपरिणति कहा गया है। जिस प्रकार संसार में वह प्रेमी दुःखी होता है जो किसी ऐसी स्त्री से प्रेम कर बैठता है जो उसकी अपनी होकर रहने वाली ही नहीं है, उसी प्रकार उन पदार्थों के प्रति जिनका वियोग अनिवार्य है, ममता रखना यही दुःख का कारण है और जो दुःख का कारण है वही अधर्म है, पाप है। आदरणीय गोयनकाजी ने बहुत ही सुन्दर बात कही है सुख दुःख दोनों एक से, मान और अपमान। चित विचलित होवे नहीं, तो सच्चा कल्याण।। जीवन में आते रहे पतझड और बसंत मन की समता न छूटे, तो सुख-शांति अनंत।। विषम जगत में चित्त की, समता रहे अटूट। तो उत्तम मंगल जगे, होय दुःखों से छूट।। समता स्वभाव है और ममता विभाव है। ममता छूटेगी तो समता अपने आप आ जावेगी। स्वभाव बाहरी नहीं है अत: उसे लाना भी नहीं है. मात्र विभाव को छोड़ना है। रोग या बिमारी हटेगी तो स्वस्थता तो आवेगी ही। इसलिए प्रयत्न बीमारी को हटाने के लिए करना है। जिस प्रकार बीमारी बनी रहे और आप पुष्टिकारक पथ्य लेते रहे तो वह लाभकारी नहीं होता है, उसी प्रकार जब तक मोह और ममता बनी रहेगी, समता जीवन में प्रकट नहीं होगी। जब मोह और ममता के बादल छटेंगे तो समता का सूर्य स्वतः ही प्रकट हो जावेगा। जब मोह और ममता की चट्टानें टूटेगी तो समता के शीतल जल का झरना स्वतः ही प्रकट होगा। जिसमें स्नान करके युग-युग का ताप शीतल हो जावेगा। मानव धर्म धर्म क्या है? इस प्रश्न पर अभी तक हमने इस दृष्टिकोण से विचार किया था कि एक चेतन सत्ता के रूप में हमारा धर्म क्या हैं? अब हम इस दृष्टि से विचार करेंगे कि मनुष्य के रूप में हमारा धर्म क्या है ? दूसरे प्राणियों से मनुष्य को जिन मनोवैज्ञानिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001699
Book TitleDharma ka Marm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size8 MB
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