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________________ जिसका चित्त या मन अशांत है यह अधर्म में जी रहा है, विभाव में जी रहा है और जिसका मन या चित्तवृत्ति शांत है वह धर्म में जी रहा है, स्वभाव में जी रहा है। एक सच्चे धार्मिक पुरुष की जीवनदृष्टि अनुकूल एवं प्रतिकूल संयोगों में कैसी होगी इसका एक सुन्दर चित्र उर्दू शायर ने खींचा है, वह कहता है - लायी हयात आ गये कजा ले चली चले चले। न अपनी खुशी आये, न अपनी खुशी गये। जिन्दगी और मौत दोनों ही स्थितियों में जो निराकुल और शांत बना रहता है वही धार्मिक है, धर्म का प्रकटन उसी के जीवन में हुआ है। धार्मिक की कसौटी यह नहीं है कि तुमने कितना पूजा-पाठ किया है, कितने उपवास और रोजे रखे हैं अपित् यही है कि तुम्हारा मन कितना अनुद्विग्न और निराकुल बना है। जीवन में जब तक चाह और चिन्ता बनी हुई है धार्मिकता का आना सम्भव नहीं है। फिर वह चाह और चिन्ता परिवार की हो या शिष्य-शिष्याओं की, घर और दुकान की हो, मठ और मन्दिर की, धनसम्पत्ति की हो या पूजा-प्रतिष्ठा की, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता है। जब तक जीवन में तृष्णा और स्पृहा है, दूसरों के प्रति जलन की भट्टी सुलग रही है। धार्मिकता सम्भव नहीं है। धार्मिक होने का मतलब है मन की उद्विग्नता या आकुलता समाप्त हो, मन से घृणा, विद्वेष और तृष्ण की आग शान्त हो। इसीलिये गीता कहती है - दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः। वीतराग भयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।। गीता २/५६ जिसका मन दुःखों की प्राप्ति में भी दुःखी नहीं होता और सुख की प्राप्ति में जिसकी लालसा तीव्र नहीं होती है, जिसके मन से ममता, भय और क्रोध समाप्त हो चुके हैं वही व्यक्ति धार्मिक है, स्थिर बुद्धि है, मुनि है। वस्तुत: चेतना जितनी निराकुल बनेगी उतना ही जीवन में धर्म का प्रकटन होगा। क्योंकि यह निराकुलता या समता ही हमारा निज धर्म है, स्व-स्वभाव है। आकलता का मतलब है आत्मा की 'पर' (पदार्थों) में उन्मुखमता और निराकुलता का मतलब है 'पर' से विमुख होकर स्व में स्थिति। इसीलिये जैन परम्परा में पर-परिणति को अधर्म और आत्मपरिणाति को धर्म कहा गया है चेतना और मन की निराकुलता हमारा निज धर्म या स्व-स्वभाव इसीलिए है कि यह हमारी स्वाभाविक मांग है, स्वाश्रित है अर्थात् अन्य किसी पर निर्भर नहीं है। आपकी चाह, आपकी चिन्ता आपके मन की आकुलता सदैव ही अन्य पर आधारित है, पराश्रित है, ये पर वस्तु के संयोग से उत्पन्न होती है और उन्हीं के आधार पर बढ़ती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001699
Book TitleDharma ka Marm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size8 MB
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