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________________ के लिये विवेक और संयम के गुणों के अभाव में मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं रहेगा, यदि विवेक और संयम के गुण हैं तो मनुष्य मनुष्य है। यदि हम मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी मानते हैं और धर्म को 'धर्मो धारयते प्रजा' के अर्थ में लेते हैं तो उस स्थिति में धर्म का अर्थ होगा- जो हमारी समाज व्यवस्था को बनाये रखता है, वही धर्म है। वे सब बातें जो समाज जीवन में बाधा उपस्थित करती हैं और हमारे स्वार्थों को पोषण देकर हमारी सामाजिकता को खण्डित करती है, समाज जीवन में अव्यवस्था और शान्ति में कारणभूत होती हैं, अधर्म हैं। इसीलिये तृष्णा विद्वेष, हिंसा, शोषण, स्वार्थपरता आदि को अधर्म और परोपकार, करूणा, दया, सेवा आदि को धर्म कहा गया है, क्योंकि जो मूल्य हमारी सामजिकता की स्वाभाविक वृत्ति का रक्षण करते हैं वे धर्म है और जो उसे खण्डित करते हैं वे अधर्म है । यद्यपि धर्म की यह व्याख्या दूसरों के संदर्भ में है, इसे समाज धर्म कह सकते हैं। स्वभाव या आत्मधर्म ऐसा तत्त्व है जो बाहर से लाया नहीं जाता है, वह तो विभाव के हटते ही स्वतः प्रकट हो जाता है । जैसे आग के संयोग के हटते पानी स्वतः शीतल हो जाता है। धर्म के लिये कुछ करना नहीं होता, केवल अधर्म को छोड़ना होता है, विभावदशा को दूर करना होता है। क्योंकि उसे ही छोड़ा या त्यागा जा सकता है जो आरोपित होता है और वह विभाव होगा, स्वभाव नहीं धर्म साधना के नाम पर जो भी प्रयास हो, वे सब अधर्म को त्यागने के लिये है, विभाव दशा को मिटाने के लिये है। धर्म तो आत्मा की शुद्धता है, उसे लाना नहीं है, क्योंकि वह बाहरी नहीं है, केवल विषय कषाय रूप मल को हटाता है। जैसे बादल के हटते प्रकाश स्वतः प्रकट हो जाता है वैसे ही अधर्म या विभाव के हटते धर्म या स्वभाव प्रकट हो जाता है । इसीलिये धर्म ओढ़ा नहीं जाता है, धर्म जिया जाता है। अधर्म आरोपित होता है, वह एक दोहरा जीवन प्रस्तुत करता है क्योंकि उसके पापखण्ड भी दोहरे होते हैं। अधार्मिक जन दूसरों से अपने प्रति जिस व्यवहार की अपेक्षा करता है, दूसरों के प्रति उसके ठीक विपरीत व्यवहार करना चाहता है इसीलिये धर्म की कसौटी 'आत्मवत् व्यवहार माना गया। ' आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां मा समाचरेत्' के पीछे भी यही ध्वनि रही है। धर्म का सार है निश्छलता, सरलता, स्पष्टता, जहाँ भी इनका अभाव होगा, वहाँ धर्म को जीया नहीं जावेगा अपितु ओढ़ा जावेगा। वहाँ धर्म नहीं, धर्म का दम्भ पनपेगा और हमें याद रखना होगा कि यह धर्म का दम्भ अधार्मिकता से अधिक खतरनाक है। क्योंकि इसमें अधर्म धर्म की पोषाक को ओढ़ लेता है, वह दीखता धर्म है, किन्तु होता है अधर्म । मानव जाति का दुर्भाग्य यही है कि आज धर्म के नाम पर जो कुछ चल रहा है वह सब आरोपित है, ओढ़ा गया है और इसीलिये धर्म के नाम पर अधर्म पनप रहा है। आज धर्म को कितने ही थोथे और निष्प्राण कर्मकाण्डो से जोड़ दिया गया है, क्या पहने और 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001699
Book TitleDharma ka Marm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size8 MB
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