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बाह्य संतुलन को बनाये रखना है । फ्रायड नामक सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक का कथन हैचैत्त जीवन और स्नायुजीवन का स्वभाव यह है कि वह विक्षोभ और तनाव को मिटाकर समत्व की स्थापना करता है। विक्षोभ, तनाव और मानसिक द्वन्द्वों से ऊपर उठकर शान्त, निर्द्वन्द्व मनः स्थिति को प्राप्त करना यह हमारी स्वाभाविक अपेक्षा है और यही धर्म है।
विश्व के लगभग सभी धर्मों ने समाधि 'समभाव' या 'समता' को धार्मिक जीवन का मूलभूत लक्षण माना है । आचारांग सूत्र में 'समियाए धम्मे आरियेहिं पवेइए (१/८/ ३) कहकर धर्म को 'समता' के रूप में पारिभाषित किया गया है। समता धर्म है, विषमता अधर्म है। वस्तुतः वे सभी तत्त्व जो हमारी चेतना में विक्षोभ, तनाव या विचलन उत्पन्न करते हैं अर्थात् चेतना के सन्तुलन को भंग करते हैं, विभाव के सूचक हैं और इसीलिये अधर्म है। अक्सर हम राग-द्वेष, घृणा, आसक्ति, ममत्व, तृष्णा, काम, क्रोध, अहंकार आदि को अधर्म (पाप) कहते हैं और क्षमा, शान्ति, अनासक्ति, निर्वैरता, वीतरागता, विरागता, निराकुलता आदि को धर्म कहते हैं, ऐसा क्यों है? बात स्पष्ट है। प्रथम वर्ग के तथ्य जहाँ हमारी आकुलता को बढ़ाते हैं, हमारे मन में विक्षोभ और चेतना में तनाव (Tension) उत्पन्न करते हैं वहीं दूसरे वर्ग के तथ्य उस आकुलता, विक्षोभ या तनाव को कम करते हैं, मिटाते हैं। पूर्वोक्त गाथा के क्षमादि भावों को जो धर्म कहा गया है, उसका आधार यही है।
मानसिक विक्षोभ या तनाव हमारा स्वभाव या स्वलक्षण इसलिये नहीं माना जा सकता है क्योंकि हम उसे मिटाना चाहते है, उसका निराकरण करना चाहते हैं और जिसे आप छोड़ना चाहते हैं, मिटाना चाहते हैं, वह आपका स्वभाव नहीं हो सकता । पुन: राग, आसक्ति, ममत्व, अहंकार, क्रोध आदि सभी 'पर' की अपेक्षा करते हैं, उनके विषय 'पर' है। उनकी अभिव्यक्ति अन्य के लिए होती है। राग, आसक्ति या ममत्व किसी पर होगा। इसी प्रकार क्रोध या अहंकार की अभिव्यक्ति भी दूसरे के लिये है । इन सबके कारण सदैव ही बाह्य जगत् में होते हैं, ये स्वतः नहीं होते हैं, परत: होते हैं। इसीलिये ये आत्मा के विभाव कहे जाते हैं, और जो भी विभाव हैं, वे सब अधर्म है। जबकि जो स्वभाव है या विभाव की ओर लौटने के प्रयास हैं वे सब धर्म हैं। भाषाशास्त्र की दृष्टि से धर्म शब्द 'धृ' धातु से बना है जिसका अर्थ होता है - धारण करना। सामान्यतया जो प्रजा को धारण करता है, वह धर्म हैं, 'धर्मो धारयते प्रजा' इस रूप में धर्म को पारिभाषित किया जाता है, किन्तु मेरी दृष्टि से जो हमारे अस्तित्व या सत्ता के द्वारा धारित है अथवा जिसके आधार, अस्तित्व या सत्ता रही हुई है वही 'धर्म' है। किसी भी वस्तु का धर्म वही है जिसके कारण वह वस्तु उस वस्तु के रूप में अपना अस्तित्व रखती है और जिसके अभाव में उसकी सत्ता ही समाप्त हो जाती है । उदाहरण
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