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है। प्रश्न यह उठता है कि क्या क्रोध ‘स्वभाव' है या हो भी सकता है? बात ऐसी नहीं है। इस कसौटी पर क्रोध और शान्ति के दो गणों को कसिये और देखिये, इनमें से मनुष्य का स्वधर्म क्या है? पहली बात तो यह है कि क्रोध कभी स्वत: नहीं होता, बिना किसी बाहरी कारण के हम क्रोध नहीं करते हैं, गुस्से या क्रोध का कोई न कोई बाह्य कारण अवश्य होता है, गुस्सा कभी अकारण नहीं होता है साथ ही गुस्से के लिए किसी दूसरे का होना जरूरी है, गुस्सा या क्रोध बिना किसी प्रतिपक्षी के स्वत: नहीं होता है, अकेले में नहीं होता है। किसी गुस्से से भरे आदमी को अकेले में ले जाइये, आप देखेंगे उसका गुस्सा धीरे-धीरे शान्त हो रहा है - गुस्से के बाह्य कारणों एवं प्रतिपक्षी के दूर हो जाने पर गुस्सा ठहर नहीं सकता है। पुनः गुस्सा आरोपित है, वह छोड़ा जा सकता है, कोई भी व्यक्ति चौबीसों घण्टे क्रोध की स्थिति में नहीं रह सकता किन्तु शान्त रह सकता है। अत: मनुष्य के लिये क्रोध विधर्म है, अधर्म है और शान्ति स्वधर्म है, निजगुण है। क्या धर्म है और क्या अधर्म है, इसका निर्णय इसी पद्धति से सम्भव है।
हमारे सामने मूल प्रश्न तो यह है कि मनुष्य का धर्म क्या है? इस प्रश्न के उत्तर के लिये मानव प्रकृति या मानव स्वभाव को जानना होगा। जो मनुष्य का स्वभाव होगा वहीं मनुष्य के लिये धर्म होगा। हमें यह विचार करना है कि एक मनुष्य के रूप में हम क्या है? मानव अस्तित्व द्विआयामी (TwoDimensional) है। मनुष्य विवेकात्मक चेतना से युक्त एक शरीर है। शरीर और चेतना यह हमारे अस्तित्व के दो पक्ष है किन्तु इसमें भी हमारे अस्तित्व का मूल आधार जीवन एवं चेतना ही है, चेतन-जीवन के अभाव में शरीर का कोई मूल्य नहीं है। शरीर का महत्त्व तो है किन्तु वह उसकी चेतनजीवन से युति पर निर्भर है। चेतन-जीवन स्वत: मूल्यवान् है और शरीर परत: मूल्यवान् है। जिस प्रकार कागजी मुद्रा का स्वयं में कोई मूल्य नहीं होता, उसका मूल्य सरकार की साख पर निर्भर करता है, उसी प्रकार शरीर का मूल्य चेतन-जीवन की शक्ति पर निर्भर करता है। हमारे अस्तित्व का सार हमारी चेतना है। चेतन-जीवन ही वास्तविक जीवन है। चेतना के अभाव में शरीर 'शव' कहा जाता है। चेतन ही एक ऐसा तत्त्व है जो 'शव' को 'शिव' बना देता है। अत: जो चेतना का स्वभाव होगा वही हमारा वास्तविक धर्म होगा। हमें अपने 'धर्म' को समझने के लिये 'चेतना' के स्वलक्षण को जानना होगा चेतना क्या है? इस प्रश्न का उत्तर हमें भगवान महावीर और गौतम के बीच हुए एक सम्वाद में मिलता है। गौतम पूछते है - भगवन् ! आत्मा क्या है? और
आत्मा का अर्थ या साध्य क्या है? महावीर उत्तर देते है - गौतम! आत्मा का स्वरूप 'समत्व' है और 'समत्व' को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है (भगवतीसूत्र)। यह बात न केवल दार्शनिक दृष्टि से सत्य है अपितु जीवशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सत्य है। जीवशास्त्र (Biology) के अनुसार चेतन जीव का लक्षण आन्तरिक और
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