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________________ क्या नहीं पहनें, क्या खावें और क्या नहीं खावें, प्रार्थना के लिये मुँह किस दिशा में करें और किस दिशा में नहीं करें, प्रार्थना की भाषा क्या हो, पूजा के द्रव्य क्या हों ? आदि आदि। ये सब बातें धर्म का शरीर हो सकती हैं, क्योंकि ये शरीर से गहरे नहीं जाती हैं, किन्तु निश्चय ही ये धर्म की आत्मा नहीं है। धर्म की आत्मा तो है समाधि, शान्ति, निराकुलता । धर्म तो सहज और स्वाभाविक है दुर्भाग्य यही है कि आज लोग धर्म के नाम पर बहुत कुछ कर तो रहे हैं मात्र अधर्म या विभाव दशा को छोड़ नहीं रहे हैं। आज धर्म को ओढ़ा जा रहा है और इसीलिये आज का धर्म निरर्थक बन गया है। यह कार्य तो ठीक वैसा ही है जैसे किसी दुर्गन्ध के ढेर को स्वच्छ सुगन्धित आवरण से ढक दिया गया हो। यह बाहर से प्रतीति से सुन्दर होती है किन्तु वास्तविकता कुछ और ही होती है। यह तथाकथित धर्म (So called religion) ही धर्म के लिये सबसे बड़ा खतरा है, इसमें अधर्म को छिपाने के लिये धर्म किया जाता है। आज धर्म के नाम पर जो कुछ किया जा रहा है उसका कोई लाभ नहीं मिल रहा है। आज हमारी दशा ठीक वैसी ही है जैसे कोई रोगी दवा तो ले किन्तु कुपथ्य को छोड़े नहीं । धर्म के नाम पर आत्म प्रवंचना एवं छलछद्म पनप रहा है, इसका मूल कारण है धर्म के सारतत्त्व के बारे में हमारा गहरा अज्ञान। हम धर्म के बारे में जानते है किन्तु धर्म को नहीं जानते हैं। आज हमने आत्मधर्म क्या है, हमारा निजगुण या स्वभाव क्या है, इसे समझा ही नहीं है और निष्प्राण कर्मकाण्डों और रीतिरिवाजों को ही धर्म मान बैठे है। हमारे धर्म चौके-चूल्हे में, मन्दिरों-मस्जिदों और उपासना गृहों में सीमित हो गये हैं, जीवन से उनका कोई सम्पर्क ही नहीं है । इसीलिये वह जीवित धर्म नहीं, मुर्दा धर्म है। किसी शायर ठीक ही कहा है - मस्जिद तो बना दी पल भर में इमां की हरारत वालों ने। मन वही पुराना पापी रहा, बरसों में नमाजी न हो सका।। आज धर्म के नाम पर जो भी किया जाता है उसका सम्बन्ध परलोक से जोड़ा जाता है। आज धर्म उधार सौदा बन गया है और इसीलिए आज धर्म से आस्था उठती जा रही है। किन्तु याद रखिये वास्तविक धर्म उधार सौदा नहीं, नकद सौदा है। उसका फल तत्काल है। भगवान् बुद्ध ने किसी से पूछा कि धर्म का फल इस लोक में मिलता है या परलोक में? उन्होंने कहा था - धर्म का फल तो उसी समय मिलता है । जैसे ही मोह टूटता है, तृष्णा छूटती है, चाह और चिन्ता कम हो जाती है, मन शान्ति और आनन्द से भर जाता है, यही तो धर्म का फल है। हम यदि अपनी अन्तरात्मा से पूछे कि हम क्या चाहते हैं ? उत्तर स्पष्ट है हमें सुख चाहिये, शान्ति चाहिये, समाधि या निराकुलता चाहिये और जो कुछ आपकी अन्तरात्मा आपसे माँगती है वही तो आपका Jain Education International 18 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001699
Book TitleDharma ka Marm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size8 MB
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