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में समत्व के संस्थापन का है। अत: जहाँ तक और जिस रूप में दैहिक और भौतिक उपलब्धियाँ उसमें साधक हो सकती है, वहाँ तक वे स्वीकार्य हैं और जहाँ तक वे उसमें बाधक है, वहाँ तक त्याज्य हैं। भगवान् महावीर ने आचारांग एवं उत्तराध्ययन सूत्र में इस बात को बहुत ही स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है। वे कहते है कि जब इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क होता है, तब उस सम्पर्क के परिणामस्वरूप सुखद-दुःखद अनुभूति भी होती है और जीवन में यह शक्य नहीं है कि इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क न हो और उसके कारण सुखद या दुःखद अनुभूति न हो, अत: त्याग इन्द्रियानुभूति का नहीं अपितु उसके प्रति चित्त में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष का करना है, क्योंकि इन्द्रियों के मनोज्ञ य अमनोज्ञ विषय आसक्तचित्त के लिए ही राग-द्वेष (मानसिक विक्षोमों) का कारण बनते हैं, अनासक्त या वीतराग के लिए नहीं। अत:
जैनधर्म की मूल शिक्षा ममत्व के विसर्जन की है, जीवन के निषेध की नहीं। क्योंकि उसकी दृष्टि में ममत्व या आसक्ति ही वैयक्तिक और सामाजिक जीवन की समस्त विषमताओं का मूल है और इसके निराकरण के द्वारा ही मनुष्य के समस्त दु:खों का निराकरण सम्भव है।
धर्म साधना का उद्देश्य है व्यक्ति को शान्ति प्रदान करना, किन्तु दुर्भाग्य से आज धर्म के नाम पर पारस्परिक संघर्ष पनप रहे हैं एक धर्म के लोगों को दूसरे धर्म के लोगों से लड़ाया जा रहा है। शान्तिप्रदाता धर्म ही आज अशान्ति का कारण बन गया है। वस्तुत: इसका कारण धर्म नहीं अपितु धर्म का लबादा ओढ़े अधर्म ही है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि 'धर्म के मर्म' को समझा नहीं है। थोथे क्रियाकाण्ड और बाह्य आडम्बर ही धर्म के परिचायक बन गये है। आयें देखें धर्म का सच्चा स्वरूप क्या है? धर्म का स्वरूप
धर्म के स्वरूप को जानने की जिज्ञासा प्रत्येक मानव में पाई जाती है। धर्म क्या है? इस प्रश्न के आज तक अनेक उत्तर दिये गये हैं किन्तु जैन आचार्यों ने जो उत्तर दिया है वह विलक्षण है तथा गम्भीर विवेचना की अपेक्षा करत है। वे कहते है -
धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो।
रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो।। वस्तु का स्वभाव धर्म है। क्षमा आदि भावों की अपेक्षा से वह दस प्रकार क है। रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र) भी धर्म है तथा जीवों की रक्षा करना भी धर्म है। सर्वप्रथम वस्तु स्वभाव को धर्म कहा गया है, आयें जरा इस पर गम्भीरता से विचार करें। सामान्यता धर्म शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। हिन्दी भाषा में जब हम कहते हैं कि आग का धर्म जलाना है, पानी का धर्म शीतलता है तो
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