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परिस्थिति को मानती है, उसके अनुसार सुख-दुःख वस्तुगत लक्ष्य है। अत: भौतिकवादी मानव सुख की लालसा में वस्तुओं के पीछे दौड़ता है और उनके संग्रह हेतु स्तेय, शोषण एवं संघर्ष जैसी सामाजिक बुराइयों को जन्म देता है। इसके विपरीत जैनधर्म या अध्यात्म हमें यह सिखाता है कि सुख-दुःख आत्मकृत हैं। बाहर न कोई शत्रु है और न कोई मित्र। आत्मा ही अपना मित्र और शत्रु है। सुप्रस्थित आत्मा मित्र है और दुःप्रस्थित आत्मा शत्रु है। अत: सुख-दु:ख की खोज पदार्थों में न कर आत्मा में करना है। जैन आचार्य कहते है कि यह ज्ञान-दर्शन स्वरूप शाश्वत आत्म तत्त्व ही अपना है, शेष सभी संयोगजन्य पदार्थ आत्मा से भिन्न है, अपने नहीं हैं। इन सांयोगिक उपलब्धियों में ममत्व बुद्धि दुःख परम्परा का कारण है, अत: आनन्द की प्राप्ति हेतु इनके प्रति ममत्व बुद्धि का सर्वथा त्याग करना अपेक्षित है। संक्षेप में देहादि आत्मेतर पदार्थों के प्रति ममत्व बुद्धि का त्याग और भौतिक उपलब्धियों के स्थान पर आत्मोपलब्धि अर्थात् वीतराग दशा की उपलब्धि को जीवन का निःश्रेयस स्वीकार करना अध्यात्म-विद्या और जैनधर्म का मूल तत्त्व है और यही मानव जाति के मंगल का मार्ग है। क्योंकि इसी के द्वार आधुनिक मानव को आन्तरिक एवं बाह्य तनावों से मुक्त कर निराकुल बनाया जा सकता
ममता का विसर्जन / दुःख का निराकरण
आध्यात्मिक मूल्यों की स्वीकृति का यह तात्पर्य नहीं है कि शारीरिक एवं भौतिक मूल्यों की पूर्णतया उपेक्षा की जावे। जैनधर्म के अनुसार शारीरिक मूल्य अध्यात्म के बाधक नहीं, साधक है। निशीथभाष्य में कहा गया है कि मोक्ष का साधन ज्ञान है, ज्ञान का साधन शरीर है, शरीर का आधार आहार है। शरीर शाश्वत आनंद के कूल पर ले जाने वाली नौका है। इस दृष्टि से उसका मूल्य भी है, महत्त्व भी है और उसकी सारसम्भाल भी करना है। किन्तु ध्यान रहे, दृष्टि नौंका पर नहीं, कूल पर होना है, नौका साधन है, साध्य नहीं। भौतिक एवं शारीरिक आवश्यकताओं की एक साधन के रूप में स्वीकृति जैनधर्म और सम्पूर्ण अध्यात्म विद्या का हार्द है। यह वह विभाजक रेखा है, जो अध्यात्म और भौतिकवाद में अन्तर स्पष्ट करती है। भौतिकवाद में भौतिक उपलब्धियाँ या जैविक मूल्य स्वयमेव साध्य हैं, अन्तिम हैं, जबकि अध्यात्म में वे किन्हीं उच्च मूल्यों का साधन है। जैनधर्म की भाषा में कहें तो साधक का वस्तुओं का त्याग और वस्तुओं का ग्रहण दोनों ही संयम (समत्व) की साधना के लिए हैं। जैनधर्म की सम्पूर्ण साधना का मूल लक्ष्य तो एक ऐसे निराकुल, निर्विकार, निष्काम और वीतराग मानस की अभिव्यक्ति है, जो कि वैयक्तिक एवं समाजिक जीवन के समस्त तनावों एवं संघर्षों को समाप्त कर सके। उसके सामने मूल प्रश्न दैहिक एवं भौतिक मूल्यों की स्वीकृति या अस्वीकृति का नहीं है, अपितु वैयक्तिक और सामाजिक जीवन
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