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________________ ही है। वह मानव को भोग - लिप्सा की सन्तुष्टि को ही उसका चरम लक्ष्य घोषित कर देता है । यद्यपि वह एक आरोपित सामाजिकता के द्वारा मनुष्य की स्वार्थ एवं शोषण की पाशविक वृत्तियों का नियमन करना अवश्य चाहता है, किन्तु इस आरोपित सामाजिकता का परिणाम मात्र इतना ही होता है कि मनुष्य प्रत्यक्ष में शान्त और सभ्य होकर भी परोक्ष में अशान्त एवं उद्दीप्त बना रहता है और उन अवसरों की खोज करता है जब समाज की आँख बचाकर अथवा सामाजिक आदर्शों के नाम पर उसकी पाशविक वृत्तियों को छद्म रूप में खुलकर खेलने का अवसर मिले। भौतिकवाद मानव की पाशविक वृत्तियों के नियन्त्रण का प्रयास तो करता है किन्तु वह उस दृष्टि का उन्मूलन नहीं करता है, जो कि इन पाशविक वृत्तियों का मूल उद्गम है। उसका प्रयास जड़ों को सींचकर शाखाओं के काटने का प्रयास है । वह रोग के कारणों को खोजकर उन्हें समाप्त नहीं करता है, अपितु मात्र रोग के लक्षणों को दबाने का प्रयास करता है। यदि जीवन की मूल दृष्टि भौतिक उपलब्धि और दैहिक वासनाओं की सन्तुष्टि हो तो स्वार्थ और शोषण का चक्र कभी भी समाप्त नहीं होगा। उसके लिए हमें जीवन के उच्च मूल्यों या आदर्शों को स्वीकार करना होगा। जब तक एक आध्यात्मिक दृष्टि के आधार पर सामाजिकता को विकसित नहीं किया जाता है, तब तक आरोपित सामाजिकता से मानव की स्वार्थ एवं शोषण की वृत्तियों का वास्तविक रूप में निराकरण असम्भव है। दुःख का मूल ममता भगवान् महावीर ने इस तथ्य को गहराई से समझा था कि भौतिकवाद मानवीय दुःखों की मुक्ति का सम्यक् मार्ग नहीं है, क्योंकि वह उस कारण का उच्छेद नहीं कर सकता जिससे दुःख-परम्परा की यह धारा प्रस्फुटित होती है। वे उत्तराध्ययन सूत्र में कहते है कि “कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं जं काइयं माणसियं च किंचि" अर्थात् समस्त भौतिक एवं मानसिक दुःखों का मूल कारण कामांसक्ति है। भौतिकवाद के पास इस कामासक्ति या ममत्व बुद्धि को समाप्त करने का कोई उपाय नहीं है। न केवल जैनधर्म ने अपितु लगभग सभी धर्मों ने इस बात को एकमत से स्वीकार किया है कि समस्त दुःखों का मूल कारण आसक्ति, तृष्णा या ममत्व बुद्धि है। यदि हम मानव जाति को स्वार्थ, हिंसा, शोषण, भ्रष्टाचार एवं तद्जनित दुःखों से मुक्त करना चाहते हैं तो हमें भौतिकवादी दृष्टि का परित्याग कर उस आध्यात्मिक दृष्टि का विकास करना होगा जिसके अनुसार भौतिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि ही जीवन का अंतिम लक्ष्य नहीं है। हमें यह मानन होगा कि दैहिक एवं आर्थिक मूल्यों से परे अन्य उच्च मूल्य भी है। आध्यात्मदृष्टि अन्य कुछ नहीं अपितु इन उच्च मूल्यों की स्वीकृति है। जैनधर्म के अनुसार अध्यात्म का अर्थ है, पदार्थ को परम मूल्य न मानकर आत्मा को परम मूल्य मानना । पदार्थवादी दृष्टि मानवीय दुःखों और सुखों का आधार "वस्तु" या बाह्य 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001699
Book TitleDharma ka Marm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size8 MB
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