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की इच्छा करने पर समाजव्यवस्था से विशृङ्खलता पैदा हो जाएगी। मन की चंचलता की दौड़ में यदि अभोग्य बहन, बेटी, कुटुम्बिनी तक से विषयसुख की लालसा जागृत हो गई तो अनर्थ हो जाएगा।
३. बोलने में संयम न रखे तो कलह की व मनोमालिन्य की सृष्टि होती है। चाहे जैसा जो वाक्य मन में आया बोल दिया तो उसका परिणाम बड़ा दारुण होता है। अधिकांश झगड़े इसी कारण पैदा होते है। तूने मुझे ऐसा क्यों कहा? इस तरह बस बात ही बात में झगड़ा बढ़ जाता है।
४. वाद्ययंत्रों के वादन में, मोटर आदि के चलाने में हाथ का संयम रखना जरूरी होता है। थोड़ा-सा हाथ का संयम खत्म हुआ कि मोटर कहीं से कहीं जा गिरेगी। ताल व वाद्य पर कंट्रोल न रहा तो सारा मजा किरकिरा हो जाएगा।
संयम के बिना जीवन नहीं चल सकता, संयम रूपी ब्रेक की हर काम में आवश्यकता होती है। जिस प्रकार मोटर, रेल, साइकिल आदि में ब्रेक न हो तो महान् दुर्घटना की सम्भावना रहती है उसी प्रकार जीवन में भी संयम न रहने पर अनेक दुर्घटनाएँ घटित हो सकती है।
सामाजिक जीवन में भी संयम के अभाव में सुखद जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। सामाजिक जीवन में प्रविष्टि संयम के बिना संभव ही नहीं है। व्यक्ति जब तक अपने हितों को मर्यादित नहीं कर सकता और अपनी आकांक्षाओं को सामाजिक हित के लिए बलिदान नहीं कर सकता, वह सामाजिक जीवन के अयोग्य है।
समाज में शांति और समृद्धि तभी संभव है जब उसके सदस्य अपने हितों का नियंत्रण करना सीखें। सामाजिक जीवन में हमें अपने हितों के लिए एक सीमा-रेखा निश्चित करनी होती है। हम अपने हितसाधन की सीमा वहीं तक बढ़ा सकते हैं जहाँ एक दूसरे के हित की सीमा प्रारंभ होती है। समाज में व्यक्ति अपने स्वार्थ की सिद्धि तभी कर सकता है जब तक उससे दूसरे का अहित न हो। इस प्रकार सामाजिक जीवन में हमें संयम का पहला पाठक पढ़ना ही होता है। मात्र यहीं नहीं वरन् हमें अपने हितों के त्याग के लिए भी तैयार होना पड़ता है। हमें अपने साथियों के लिए अपनी आवश्यकताओं का बलिदान करना पड़ता है।
सामाजिक जीवन के आवश्यक तत्त्व है - १. अनुशासन, २. सहयोग की भावना और ३. अपने हितों को बलिदान करने की क्षमता। क्या इन सबका आधार संयम नहीं है? वस्तुस्थिति यह है कि संयम के बिना सामाजिक जीवन की कल्पना ही सम्भव नहीं।
__ संयम और मानवजीवन ऐसे घुलेमिले तथ्य हैं कि उनसे परे एक सुव्यवस्थित जीवन की कल्पना संभव नहीं है। संयम का दूसरा रूप ही मर्यादित जीवन व्यवस्था है।
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