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बताता है कि मनुष्य ने प्रकृति से शासित होने की अपेक्षा उन पर शासन करने का प्रयत्न किया है। फिर आचार के क्षेत्र में यह दावा कैसे स्वीकार किया जा सकता है कि मनुष्य को अपनी वृत्तियों की पूर्ति हेतु मानवों द्वारा निर्मित नैतिक मर्यादाओं द्वारा शासित न कर स्वतंत्र परिचारण करने देना चाहिए। मनुष्य ने जीवन में कृत्रिमता को अधिक स्थान दिया है और इस हेतु उसके लिए अधिक निर्मित नैतिक मर्यादाओं की आवश्यकता है।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है 'Man is a social animal' यह मनुष्य के सम्बन्ध में दूसरा मुद्रालेख है यह व्यक्त करता है कि मनुष्य के स्वहित के दृष्टिकोण से बनाये गये आचार के नियम भी ऐसे होने चाहिए जो उसकी सामाजिकता को बनाए रखें। समाजिक व्यवस्था में व्याघात उत्पन्न करने का अधिकार उसे प्राप्त नहीं है।
उपर्युक्त आधार पर मनुष्य की आचारविधि या नैतिक मर्यादाएँ दो प्रकार की हो सकती है, एक समाजगत और दूसरी आत्मगत। पाश्चात्य विचारक भी ऐसे ही दो विभाग करते है -
१. उपयोगितावादी सिद्धान्त २. अन्तरात्मक सिद्धान्त
लेकिन यह ध्यान में रखना चाहिए कि निरपेक्ष रूप से न तो समाजगत विधि ही अपनाई जा सकती है और न आत्मगत, दोनों का सापेक्षित महत्त्व है। यह एक अलग तथ्य है कि किसी परिस्थिति विशेष में साधक की योग्यता के आधार पर किसी एक को प्रमुखता दी जा सकती है और दूसरी गौण हो सकती है लेकिन एक ही अवहेलना करके आगे नहीं बढ़ा जा सकता।
चाहे हम अपने लिए या समाज के लिए नैतिक मर्यादाओं का पालन करें, लेकिन उनकी अनिवार्यता से इनकार नहीं किया जा सकता। दृष्टिकोण चाहे जो हो, दोनों में संयम के लिए समान स्थान है। असयंम से जीवन बिगड़ता है, प्राणी दुःखी होता है। इस सम्बन्ध में श्री अगरचंद नाहटा का कथन है -
१. खाने में ही देखिए - संयम की बड़ी आवश्यकता रहती है। जो आया वही भक्ष्य, अभक्ष्य व अपरिमित खाता रहे तो ठीक से न पचने या स्वास्थ्य के विरोधी तत्त्वों के शरीर में प्रवेश के कारण रोगों की उत्पत्ति हो जाएगी। बीमार व्यक्ति यदि खाने का संयम न रखे, तो इच्छा में आए वह खा ले, तो तुरन्त रोग बढ़कर मृत्यु को प्राप्त हो सकता है।
२. भोगों में संयम - विषय सुख बड़े मधुर लगते हैं, पर यदि व्यक्ति इनमें संयम न रखे तो वीर्यनाश से शक्तिह्रास यावत् रोगोत्पत्ति से मृत्यु को प्राप्त हो सकता है। सुन्दर स्त्रियों को देखकर मन ललचा जाता है, किन्तु पराई स्त्रियों से विषय-सुख
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