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लिखते है - रूप आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अत: रूप अन्य है और आत्मा अन्य है ऐसा जिन कहते हैं।
वर्ण आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अत: रूप अन्य है और आत्मा अन्य है ऐसा जिन कहते हैं।
गंध आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अत: गंध अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं।
रस आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अतः रस अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं।
स्पर्श आत्मा नहीं है क्योंकि वह कुछ नहीं जानता अत: स्पर्श अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं।
कर्म आत्मा नहीं है क्योंकि कर्म कुछ नही जानते अत: कर्म अन्य है और आत्मा अन्य है, ऐसा जिन कहते हैं।
अध्यवसाय आत्मा नहीं है क्योंकि अध्यवसाय कुछ नहीं जानते (मनोभाव भी किसी ज्ञायक के द्वारा जाने जाते हैं वे स्वत: कुछ नहीं जानते, यथा क्रोध के भाव को जानने वाला ज्ञायक उससे भिन्न है) अत: अध्यवसाय अन्य है और आत्मा अन्य है। ___अपने शुद्ध ज्ञायक स्वरूप की दृष्टि से आत्मा न राग है, न द्वेष है, न मोह है, न क्रोध है, न मान है, न माया है, न लोभ है। अपने शुद्ध स्वरूप में वह इनका कारण और कर्ता भी नहीं है।
वस्तुत: आत्मा जब अपने शुद्ध ज्ञाता स्वरूप में अवस्थित होता है संसार के समस्त पदार्थ ही नहीं वरन् उसकी अपनी चित्तवृत्तियाँ और मनोभाव भी उसे 'पर' (स्व से भिन्न) प्रतीत होते हैं। जब वह 'पर' को पर के रूप में जान लेता है और उनसे अपनी पृथकता का बोध कर लेता है तब उसकी ममता या रागभाव समाप्त हो जाता है और वह अपने शुद्ध ज्ञायक स्वरूप को जानकर उसमें अवस्थित हो जाता है, यही वह अवसर होता है जब मुक्ति का द्वार उद्घाटित होता है क्योंकि जिसने पर को पर के रूप में जान लिया है तो उसके लिए ममत्व या राग के लिये कोई स्थान नहीं रहता है। राग के गिर जाने पर वीतरागता का प्रकटन होता है और मुक्ति का द्वार खुल जाता है।
भेदविज्ञान की इस प्रक्रिया में आत्मा सबसे पहले वस्तुओं एवं पदार्थों से अपनी
१. देखिये - समयसार - ३९२-४०२। २. देखिये - नियमसार - ७७-८१॥
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