SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हैं| आचार्य शंकर लिखते हैं - देहस्य मोक्षो नो मोक्षो न दण्डस्य कमण्डलो: । अविद्याहृदयग्रन्थिमोक्षो मोक्षो यतस्ततः ॥ - विवेकचूड़ामणि ५५९ वस्तुतः मुक्ति का अर्थ है राग-द्वेष, तृष्ण, कषाय आदि विकारों से मुक्ति। मरणेत्तर मोक्ष या विदेह - मुक्ति साध्य नहीं है। उसके लिए कोई साधना अपेक्षित नहीं है, साध्य तो है वीतरागता । जिस प्रकार मृत्यु जन्म लेने का अनिवार्य परिणाम है उसी प्रकार विदेह-मुक्ति तो जीवन-मुक्ति या वीतरागता का अनिवार्य परिणाम है। अतः जो प्राप्तव्य है, जो पुरुषार्थ है और जो साध्य है वह तो वीतरागता ही है। जीवन मुक्ति या वीतराग दशा के प्रत्यक्ष की सामाजिक सार्थकत से हम इन्कार भी नहीं कर सकते क्योंकि जीवनमुक्त तीर्थंकर एक ऐसा व्यक्तित्व है जो सदैव लोक-कल्याण के लिये प्रस्तुत रहता है । जैन दर्शन में तीर्थंकर, बौद्ध दर्शन में अर्हत् एवं बोधिसत्व की जो धारणाएँ प्रस्तुत की गई है और उनके व्यक्तित्व को जिस रूप में चित्रित किया गया है उससे हम निश्चय ही इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि मोक्ष के प्रत्यय की समाजिक उपादेयता भी है। वह लोकमंगल और मानव-कल्याण का एक महान् आदर्श माना जा सकता है क्योंकि जनजन का दुःखों से मुक्त होना ही मुक्ति है, मात्र इतना ही नहीं, भारतीय चिन्तन में वैयक्तिक मुक्ति की अपेक्षा भी लोक कल्याण के लिये प्रयत्नशील बने रहने को अधिक महत्त्व दिया गया है। बौद्ध दर्शन में भी बोधिसत्व का जो आदर्श प्रस्तुत किया गया है वह हमें स्पष्ट रूप से बताता है कि केवल वैयक्तिक मुक्ति को प्राप्त कर लेना ही अन्तिम लक्ष्य नहीं है। Jain Education International बोधिसत्व और तीर्थंकर सदैव ही दीन और दुःखीजनों को दुःख से मुक्त कराने के लिये प्रयत्नशील रहते हैं। वस्तुतः मोक्ष अकेला पाने की वस्तु ही नहीं है। इस सम्बन्ध में विनाबा भावे के उद्गार विचारणीय हैं - जो समझता है कि मोक्ष अकेले हथियाने की वस्तु है, वह उसके हाथ से निकल जाता है 'मैं' के आते ही मोक्ष भाग जाता है, मेरा मोक्ष यह वाक्य ही गलत है। 'मेरा' मिटने पर ही मोक्ष मिलता है (आत्मज्ञान और दिन पृष्ठ ७१ ) इस प्रकार वास्तविक मुक्ति अहंकार से मुक्ति ही है 'मैं' अथवा 'अहं' भाव से मुक्त होने के लिये हमें अपने आप को समष्टि में, समाज में लीन कर देना होता है । मुक्ति वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है जो कि अपने व्यकितत्व को समष्टि 67 - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001699
Book TitleDharma ka Marm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy