Book Title: Vyavahar Sutram Part 02
Author(s): Munichandrasuri
Publisher: Omkarsuri Gyanmandir Surat

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Page 491
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री व्यवहार सूत्रम् तृतीय उद्देशकः ७४७ (B) निर्ग्रन्थ्याः णं इति पूर्ववत् नव-डहर-तरुणायाः नवाया डहरायास्तरुण्या वा इत्यर्थः। आचार्योपाध्यायः समासोऽत्र पूर्ववत्, आचार्योपाध्यायः उपलक्षणमेतत्, प्रवर्तिनी च विष्कभ्नीयात् म्रियेत, ततः से तस्या अनाचार्योपाध्यायायाः, उपलक्षणमेतत्, प्रवर्तिनीरहितायाश्च नो कल्पते भवितुं वर्तितुं, किन्तु पूर्वमाचार्यमुद्देशाप्य ततः पश्चादुपाध्यायं ततोपि पश्चात्प्रवर्तिनीम् एवं साचार्योपाध्याय-प्रवर्तिनीकाया भवितुं कल्पते। से किमाहु इत्यादि। अथ भदन्त! किं कस्मात्कारणात् भगवन्त एवमाहुः? सूरिराह-त्रिभिः सङ्ग्रहीता त्रिसग्रहीता श्रमणी निर्ग्रन्थी सदा भवति। तद्यथा-आचार्येणोपाध्यायेन प्रवर्तिन्या च। एष सूत्रसक्षेपार्थः । अत्राऽऽक्षेप-परिहारौ वक्तव्यौ॥ तत्रायमाक्षेपः किं कारणं ननु त्रिसंगृहीता निर्ग्रन्थी भवति? तत्राऽऽचार्योपाध्यायसङ्ग्रहे गुणानुपदर्शयति दूरत्थम्मि वि कीरइ, पुरिसे गारवभयं सबहुमाणं। छंदे य अवÈती, चोएउ जे सुहं होइ ॥ १५७० ॥ दूरस्थेऽपि पुरुषे स्वपक्षेण परपक्षेण च क्रियते गौरवं भयं सबहुमानं चेत्यर्थः । इयमत्र | भावना-यद्यपि नाम आचार्य उपाध्यायो वा संयतीनां दूरे वर्तते तथापि दूरस्थस्यापि पुरुषस्य सूत्र १२ गाथा १५६६-१५७० त्रिसंगृहीता श्रमणी ७४७ (B) For Private and Personal Use Only

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