Book Title: Vyavahar Sutram Part 02
Author(s): Munichandrasuri
Publisher: Omkarsuri Gyanmandir Surat

View full book text
Previous | Next

Page 549
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री व्यवहारसूत्रम् तृतीय उद्देशकः ७७६ (B)| पर्षनाम व्यवहार्यों द्वावपि पक्षौ। तौ ब्रूते- यदि द्वावपि पक्षौ मध्यस्थौ भवतः। मध्यस्थता राग-द्वेषाऽकरणतो भवति, तत आह-निभृतौ निर्व्यापारौ राग-द्वेषौ ययोस्तौ रागद्वेषनिभृतौ क्तान्तस्य पाक्षिकः परनिपातः, सुखादिदर्शनात्। ततः सुखं व्यवहरितुं व्यवहरणं | भवति ॥ १६५३॥ एवं पर्षद्ग्रहणं कृत्वा ये दुर्व्यवहारिणस्तानिक्षिपन्निदमाहओसन्नचरण-करणे सच्चव्ववहारया दुसद्दहिया। चरण-करणं जहंतो सच्चव्ववहारयं जहइ ॥ १६५४ ॥ अवसन्ने शिथिलतां गते चरणकरणे व्रतश्रमणधर्मादि-पिण्डविशोधिसमित्यादिरूपे यस्य सोऽवसन्नचरण-करणः, तस्मिन् सत्यव्यवहारता यथावस्थितव्यवहारकारिता दुःश्रद्धेया। यतश्चरण-करणं जहन् त्यजन् सत्यव्यवहारतामपि जहाति ॥ १६५४॥ जइया णेणं चत्तं, अप्पणतो नाण-दसण-चरित्तं। तइया तस्स परेसुं, अणुकंपा नत्थि जीवेसु ॥ १६५५ ॥ गाथा |१६५२-१६५९ संघकार्ये व्यवस्थादिः ७७६ (B) For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582