Book Title: Vyavahar Sutram Part 02
Author(s): Munichandrasuri
Publisher: Omkarsuri Gyanmandir Surat

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Page 567
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री व्यवहारसूत्रम् तृतीय उद्देशकः ७८५ (B) इहलोए य अकित्ती, परलोए दुग्गती धुवा तेसिं। अणाणाए जिणिंदाणं जे ववहारं ववहरेंति ॥ १६८६ ॥ ये जिनेन्द्राणामनाज्ञया व्यवहारं व्यवहरन्ति, तेषामिह लोके अकीर्तिः परलोके ध्रुवा दुर्गतिः ॥१६८६॥ तेण न बहुस्सुतो वी, होइ पमाणं अण्णायकारिओ। नाएण ववहरंतो, होई पमाणं जहा उ इमे ॥ १६८७ ॥ यत एवं दुर्व्यवहारिण इह लोकेऽपकीर्तिः परलोके च दुर्गतिस्तेन कारणेन बहुश्रुतोऽप्यन्यायकारी न भवति प्रमाणम्। न्यायेन पुनर्व्यवहरन् भवति प्रमाणम्। यथा इमे वक्ष्यमाणास्तगरायां तस्यैवाऽऽचार्यस्याष्टौ शिष्याः ॥ १६८७॥ तानेवाऽऽहकित्तेहि पूसमित्तं१, वीरं२ सिवकोट्ठगं३ च अज्जासं ४। अरहन्नग५ धम्मत्तग ६खंदिल७ गोविंददत्तं च ॥ १६८८ ॥ गाथा |१६८२-१६८८ तगरायाः दुर्व्यवहारिणः अष्टौ ७८५ (B) For Private and Personal Use Only

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