Book Title: Visuddhimaggo Part 02
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 10
________________ अन्तरङ्गकथा कहा है। 'आन' का अर्थ है 'सांस लेना' और 'अपान' का अर्थ है 'सांस छोड़ना'। इन्हें आश्वासप्रश्वास भी कहते हैं। स्मृतिपूर्वक आश्वास-प्रश्वास की क्रिया जो साधक द्वारा समाधि में निष्पन्न की जाती है, वह आनापन-स्मृति-समाधि कहलाती है। भगवान् बुद्ध ने इस समाधि की भावना करने को विधि १६ प्रकार से निर्दिष्ट की है। बुद्ध शासन में इस समाधि की विधि का ग्रहण सर्वप्रकार से किया गया है। यह एक प्रकृष्ट कर्मस्थान समझा जाता है। आचार्य बुद्धघोष का कहना है कि ४० कर्मस्थानों में इसका शीर्षस्थान है और इसी कर्मस्थान की भावना कर सब बुद्ध, प्रत्येकबुद्ध एवं बुद्धश्रावकों ने विशेष फल प्राप्त किया है। नाना प्रकार के वितर्कों के उपशम के लिये भगवान् ने इस कर्मस्थान को विशेष रूप से उपयुक्त बताया है। दस अशुभ कर्मस्थानों के आलम्बनों (मृत शरीर के भिन्न भिन्न प्रकारों की भावना) की तरह इसका आलम्बन बीभत्स और जुगुप्सा भाव उत्पन्न करने वाला नहीं है। यह कर्मस्थान किसी दृष्टि से भी अशान्त और अप्रणीत नहीं है। अन्य कर्मस्थानों में शान्तभाव उत्पादित करने के लिये पृथ्वी-मण्डलादि बनाना पड़ता है और भावना द्वारा निमित्त का उत्पादन करना पड़ता है। पर इस कर्मस्थान में किसी विशेष क्रिया की आवश्यकता नहीं है। अन्य कर्मस्थानों में उपचार-क्षण में विघ्नों के विष्कम्भन और अङ्गों के प्रादुर्भाव के कारण ही शान्ति होती है। परन्तु यह समाधि स्वभाववश आरम्भ से ही शान्त और प्रणीत है। इसलिये यह असाधारण है। जब जब इस समाधि की भावना होती है तब तब चैतसिक सुख प्राप्त होता है और ध्यान से उठने के समय प्रणीत रूप से शरीर व्याप्त हो जाता है और इस प्रकार कायिक सुख का भी लाभ होता है। इस असाधारण समाधि की बार बार भावना करने से उदय होने के साथ ही पाप क्षणमात्र में सम्यक् रूप से विलीन होते हैं। जिनकी प्रज्ञा तीक्ष्ण है और जो उत्तरज्ञान की प्राप्ति चाहते हैं उनके लिये यह कर्मस्थान विशेष रूप से उपयोगी है; क्योंकि यह समाधि आर्यमार्ग की भी साधिका है। क्रमपूर्वक इसकी वृद्धि करने से आर्यमार्ग की प्राप्ति होती है और क्लेशों का सातिशय विनाश होता है। किन्तु इस कर्मस्थान की भावना सुगम नहीं है। क्षुद्र जीव इसकी भावना करने में समर्थ नहीं होते। यह कर्मस्थान बुद्धादि महापुरुषों द्वारा ही आसेवित होता है। यह स्वभाव से ही शान्त और सूक्ष्म है। भावना बल से उत्तरोत्तर अधिकाधिक शान्त और सूक्ष्म होता जाता है। यहाँ तक कि यह दुर्लक्ष्य हो जाता है। इसीलिये इस कर्मस्थान में बलवती और सुविशदा स्मृति और प्रज्ञा की आवश्यकता है। सूक्ष्म अर्थ का साधन भी सूक्ष्म ही होता है। इसीलिये भगवान् संयुक्तनिकाय में कहते हैं-"जिसकी आनापानस्मृति की शिक्षा हो गयी है और जो सम्प्रजन्य से रहित है, उसके लिये स्मृति विनष्ट नहीं है। अन्य कर्मस्थान भावना से विभूत हो जाते हैं, पर यह कर्मस्थान स्मृतिसम्प्रजन्य के विना सुगृहीत नहीं होता।", जो साधक इस समाधि की भावना करना चाहता है उसे एकान्तसेवन चाहिये। शब्द ध्यान में कण्टक (विघ्न) होता है। वहाँ दिन रात रूपादि इन्द्रिय-विषयों की ओर भिक्षु का चित्त प्रधावित होता रहता है और इसीलिये इस समाधि में चित्त आरोहण करना नहीं चाहता। अत: जनसमाकुल स्थान में भावना करना दुष्कर है। उसे अपने चित्त का दमन करने के लिये विषयों से दूर किसी निर्जन स्थान में रहना चाहिये। वहाँ पर्यङ्कबद्ध होकर सुखपूर्वक आसन पर बैठना चाहिये और शरीर के ऊपरी भाग को सीधा रखना चाहिये। इससे चित्त लीन और उद्धत भाव का परित्याग करता है। इस तरह आसन स्थिर होता है और सुखपूर्वक आश्वास प्रश्वास का प्रवर्तन होता है। इस आसन में बैठने से चर्म, मांस और स्नायु नहीं नमते तथा जो वेदना इनके नमन से क्षण क्षण पर उत्पन्न होती है, वह नहीं होती। इसलिये

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