Book Title: Visuddhimaggo Part 02
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 8
________________ ९ अन्तरङ्गकथा भी भय का दर्शन करता है, और अनुत्तर शील को प्राप्त करता है। इस अनुस्मृति में भी अर्पणा नहीं होती; उपचार - ध्यान मात्र होता है । (४) ५. त्यागानुस्मृति - त्यागानुस्मृति को प्राप्त करने के इच्छुक साधक को चाहिये कि वह इस स्मृति को करने के पहले कुछ न कुछ दान दे। ऐसा निश्चय भी करे कि बिना कुछ दान दिये मैं अन्नग्रहण न करूँगा। अपने दिये हुए दान को ही आलम्बन बनाकर वह सोचता है - " अहो ! लाभ है मुझे, जो मत्सरमलों से युक्त प्रजा के बीच में भी विगतमत्सर हो विहार करता हूँ। मैं मुक्तत्याग, प्रयतपाणि, व्युत्सर्गरत, याचयोग (दानशील) और दान-संविभागरत हूँ ।" इस विचार के कारण उसका चित्त प्रीतबहुल होता है और उसे उपचारसमाधि प्राप्त होती है । (५) ६. देवतानुस्मृति - देवतानुस्मृति में साधक आर्यमार्ग में स्थिर रहकर चातुर्महाराजिक आदि देवों को साक्षी बनाकर अपने श्रद्धादि गुणों का तथा देवताओं के पुण्यसम्भार का ध्यान करता है। इस अनुस्मृति से साधक देवताओं का प्रिय होता है। इनमें भी वह उपचारसमाधि को प्राप्त करता है। (६) ८. अनुस्मृतिकर्मस्थाननिर्देश ७. मरणानुस्मृति - एकभवपर्यापन्न जीवितेन्द्रिय के उपच्छेद को 'मरण' कहते हैं । अर्हतों का वर्तदुःख- समुच्छेद-म‍ द- मरण या संस्कारों का क्षणभङ्गमरण यहाँ अभिप्रेत नहीं है । जीवितेन्द्रिय के उपच्छेद जो मरण होता है वही यहाँ अभिप्रेत है। उसकी भावना करने का इच्छुक साधक एकान्त स्थान में जाकर 'मरण होगा, जीवितेन्द्रिय का उपच्छेद होगा' - ऐसा विचार करता है। 'मरण, मरण' इस प्रकार बार बार चित्त में विचार करता है। मरणानुस्मृति में योग्य आलम्बन को चुनना चाहिये । इष्टजनों के मरणानुस्मरण से शोक होता है, अनिष्टजनों के मरणानुस्मरण से प्रामोद्य होता है, मध्यस्थ जनों के मरणानुस्मरण से संवेग नहीं होता। अपने ही मरण के विचार से सन्त्रास उत्पन्न होता है। इसलिये जिनकी पूर्व सम्पत्ति और वैभव को देखा हो, ऐसे सत्त्वों के मरण का विचार करना चाहिये, जिससे स्मृति, संवेग और ज्ञान उपस्थित होता है । इस चिन्तन से उपचार समाधि की प्राप्ति होती है । मरणानुस्मृति में उपयुक्त साधक सतत अप्रमत्त रहता है, सर्व भवों से अनभिरति संज्ञा को प्राप्त करता है, जीवित की तृष्णा को छोड़ता है और निर्वाण को प्राप्त करता है । (७) ८. कायगतानुस्मृति - यह अनुस्मृति बहुत महत्त्व की है। श्रीबुद्धघोष के अनुसार यह केवल बुद्धों से ही प्रवर्तित और सर्वतीर्थिकों की अविषयभूत है । भगवान् ने अङ्गुत्तरनिकाय में कहा है“भिक्षुओ! यदि एकधर्म भावित, बहुलीकृत है तो महान् संवेग को प्राप्त कराता है, महान अर्थ को, योगक्षेम को, स्मृतिसम्प्रजन्य को, ज्ञानदर्शनप्रतिलाभ को, दृष्टधर्मसुखविहार को, विद्या- विमुक्तिफल-साक्षात्करण को प्राप्त कराता है। कौन है वह एक धर्म ? कायगतास्मृति ही वह धर्म है । जो कायगता स्मृति को प्राप्त करता है वह अमृत को प्राप्त करता है । " 1 कायगता स्मृति को प्राप्त करने का इच्छुक साधक इस शरीर को पादतल से केश - मस्तक तक और त्वचा से अस्थियों तक देखता है। इस शरीर में केश, लोम, नख, दन्त, त्वचा, मांस, न्हारु, अस्थि, अस्थिमज्जा, वृक्क, हृदय आदि बत्तीस कर्मस्थानों को देखकर अशुचि- - भावना प्राप्त करता है। ये कर्मस्थान आचार्य के पास ग्रहण कर इन (बत्तीस कर्मस्थानों) का अनुलोम-प्रतिलोम क्रम से बार बार मन वचन से स्वाध्याय करता है। फिर उन कर्मस्थानों के वर्णसंस्थान, परिच्छेद आदि का चिन्तन करता है। इन कर्मस्थानों को अनुपूर्व से, नातिशीघ्र और नातिमन्द गति से, अविक्षिप्तचित्त से चिन्तन करता है ।

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