Book Title: Visuddhimaggo Part 02 Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay Publisher: Bauddh Bharti View full book textPage 9
________________ विसुद्धिमग्गो इस प्रकार इन बत्तीस कर्मस्थानों में से एक एक कर्मस्थान में वह अर्पणासमाधि को प्राप्त करता है। यता स्मृति के पूर्व की सात अनुस्मृतियों में अर्पणा प्राप्त नहीं होती, क्योंकि वहाँ आलम्बन गम्भीर है और अनेक है। यहाँ पर योगी सतत अभ्यास से एक एक कोट्ठास को लेकर प्रथम ध्यान को प्राप्त करता है। इस कागता स्मृति में अनुयुक्त साधक अरति-रति-सह होता है। उत्पन्न रति और अरति को अभिभूत करता है; भयभैरव को सहन करता है, शीतोष्ण को सहन करता है, चार ध्यानों को प्राप्त करता है और षडभिज्ञ भी होता है। (८) १० ९. आनापानस्मृति - स्मृतिपूर्वक आश्वास-प्रश्वास की क्रिया द्वारा जो समाधि प्राप्त होती है उसे ‘आनापानस्मृति' कहते हैं । यह शान्त, प्रणीत, अव्यवकीर्ण, ओजस्वी और सुखविहार है। . चित्त के एकाग्र करने के लिये पातञ्जल योगदर्शन में कई उपाय निर्दिष्ट किये गये हैं। योग के ये विविध साधन ‘परिकर्म' कहलाते हैं। विसुद्धिमग्ग में इन्हें कर्मस्थान कहा है। ये विविध प्रकार के चित्तसंस्कार हैं, जिनसे चित्त एकाग्र होता है। योगशास्त्र का रेचनपूर्वक कुंभक इसी प्रकार का एक साधन है। इसका उल्लेख समाधिपाद के चौबीसवें सूत्र में किया गया है - ' प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य'। योगशास्त्रोक्त प्रयत्नविशेष द्वारा आभ्यतर वायु को बाहर निकालना ही प्रच्छर्दन या रेचन कहलाता है। रेचित वायु का बहिः स्थापन कर प्राणरोध करना ही विधारण या कुम्भक है। इस क्रिया में तर वायु को बाहर निकालकर फिर श्वास का ग्रहण नहीं होता। इससे शरीर हल्का और चित्त एकाग्र होता है। यह एक प्रकार का प्राणायाम है। प्राणायाम के प्रसङ्ग में इसे बाह्यवृत्तिक प्राणायाम कहा है। योग दर्शन में चार प्रकार का प्राणायाम वर्णित है- १. बाह्यवृत्तिक, २. आभ्यन्तरवृत्तिक, ३. स्तम्भवृत्तिक और ४. बाह्याभ्यन्तर विषयाक्षेपी' । 'प्राणायाम' का अर्थ है - श्वास प्रश्वास का अभाव अर्थात् श्वासरोध । बाह्यवृत्तिक रेचकपूर्वक कुम्भक है। आभ्यन्तरवृत्तिक पूरकपूर्वक कुम्भक है। इस प्राणायाम में बाह्य वायु को नासिकापुट से भीतर खींचकर फिर श्वास का परित्याग नहीं किया जाता। भवृत्ति प्राणायाम केवल कुम्भक है। इसमें रेचक या पूरक की क्रिया के विना ही सकृत्प्रयत्न द्वारा वायु की बहिर्गति और आभ्यन्तरगति का एक साथ अभाव होता है। चौथा प्राणायाम एक प्रकार का स्तम्भवृत्ति प्राणायाम है। भेद इतना ही है कि स्तम्भवृत्तिक प्राणायाम सकृत्प्रयत्न द्वारा साध्य है, किन्तु चौथा प्राणायाम बहुप्रयत्न साध्य है । अभ्यास करते करते अनुक्रम से चतुर्थ प्राणायाम सिद्ध होता है, अन्यथा नहीं। तृतीय प्राणायाम में पूरक और रेचक के देशादि विषय की आलोचना नहीं की जाती। केवल देश, काल और संख्यापरिदर्शनपूर्वक स्तम्भवृत्तिक की आलोचना होती है। किन्तु चतुर्थ प्राणायाम में पहले देशादिपरिदर्शनपूर्वक बाह्य वृत्ति और आभ्यन्तर वृत्ति का अभ्यास किया जाता है। चिरकाल के अभ्यास से जब ये दोनों वृत्तियाँ अत्यन्त सूक्ष्म हो जाती हैं, तब साधक इनका अतिक्रम श्वास का रोध करता है। यह चतुर्थ प्राणायाम है। तृतीय और चतुर्थ प्राणायाम में बाह्य और आभ्यन्तर वृत्तियों का अतिक्रम होता है, अन्तर इतना ही है कि तृतीय प्राणायाम में यह अतिक्रम एक बार में ही हो जाता है; किन्तु चतुर्थ प्राणायाम में चिरकालीन अभ्यासवश ही अनुक्रम से यह अतिक्रम सिद्ध होता. बाह्य और आभ्यन्तर वृत्तियों का अभ्यास करते करते पूरण और रेचन का प्रयत्न इतना सूक्ष्म हो जाता है कि वह विधारण में मिल जाता है। · 'प्राणायाम' योग का एक उत्कृष्ट साधन है। बौद्धसाहित्य में इसे आनापानस्मृतिकर्मस्थान १. देखिए - पा० यो० सू०, साधनपाद, ५०-५१ सूत्र ।Page Navigation
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