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10) विष व विषय की शक्ति
आशीविष (दाढ़ा में जहर) बिच्छू यदि काटे तो अर्ध भरत प्रमाण शरीर में फैले, मेंढ़क यदि काटे तो भरत में फैले, सर्प यदि काटे तो जबूद्वीप में फैले और मनुष्य यदि काटे तो, 2 1/2 द्वीप में फैले ओट ? यह इतने बड़े शरीर में फैलता है। तीर्थंकरो ने बताया है, परन्तु विषय (शब्द रुप आदि) रुप विष तो पूरे लोक में फैला हुआ ही है ना !
ठाणाग सूत्र 4 ठाणा 11) कषायों की निरन्तरता
चार कषायों की निरन्तरता ही जीव को संसार में रोके रखी हुई है । एक मुहुर्त प्रमाण यदि जीव अकषायी 12 वाँ गुण स्थानी बन जावें तो जीव का मोक्ष हो जाता है।
भग. श.6 उ64 12) जो मांगो वो मिलता है
Departmental Store जैसे बड़े शहरों मे होता है, तीर्थंकरों के समय में भी एक दुकान जिसका नाम कुत्रिकापन (कु-पृथ्वी, त्रिक - तीन, आपन - दुकान) तीन लोक की उपलब्ध वस्तुएँ जहाँ पर मिलती है। यदि 1000 व्यक्ति दीक्षा के लिए तैयार होते हैं, तत्काल पात्र रजोहरण तैयार
मिलती है! 13) आँख की पलकों पर 32 नाटक
भौतिक दिव्य समृद्धि का स्वामी अव्याबाध नामकदेव किसी पुरूष की आँखों के पलकों पर 32 प्रकार के दिव्य नाटक करता है । उस व्यक्ति को किंचित मात्र भी दुःख नही होता है | विशिष्ट शक्ति का स्वामी देव, नाम है अब्याबाध देव ।
14) अशुचि में ही पैदा होगा क्या ?
कितने अशुभ कर्मो का उदय होगा, उन जीवों का जो मनुष्य के 14 प्रकार के अशुचि स्थानो में ही जन्म लेते हैं। क्यों ? कारण कुछ न कुछ होगा | परन्तु शरीर का राग शरीर में पैदा करता है। उम्र भी कम, अपर्याप्त अवस्था में ही मरण प्राप्त होता है, जब कि पंचेन्द्रिय कहलाता है।
पन्नवणा पद 12 15) साता से असाता पन्द्रह गुनी
पन्नवणा में 256 देर (राशि) बनाए गए समस्त जीवों के, उसमें 16 देर, साता वेदनीय भोगते जीवों के है | 240 देर असाता भोगते जीवों के है ! निरन्तर मिलते है। 16 से 240 मे पन्द्रह गुना फर्क है, संसार में साता से पन्द्रह गुना असाता - वेदनीय जीवों द्वारा बाँधा व भोगा जाता है।
पन्नवणा पद 3 16) अनंत शक्ति धारक भी नही कर सकते हैं,
क्या ?
असंभव कार्य है, छह जगत में, 1) जीव को अजीव नहीं कर सकते है, 2) अजीव को जीव नहीं कर सकते है, 3) एक समय में दो भाषा नहीं बोल सकते, 4) कर्म को इच्छानुसार नहीं भोग सकते, 5) परमाणु का छेदन भेदन नहीं कर सकते, 6) लोक के बाहर कोई नहीं जा सकते ।
ठाणांग सूत्र 6ठा ठाणा 17) असंख्य की संख्या एक साथ नरक में
पाप का प्रभाव कितना भयंकर है । एक समय में असंख्य जीव एक साथ मरकर नरक में चले जाते है।
भग. श. 14 उ.8 ||