Book Title: Vinay Bodhi Kan
Author(s): Vinaymuni
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sangh

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Page 288
________________ तत्पश्चात विशुद्ध उत्कर्ष हेतु “प्रायश्चित” रुप | 364. ऐसे धर्म तीर्थ की (सत्य आदि) स्थापना कायोत्सर्ग करने का विधान बताया गया है। करते है, वे तीर्थंकर कहलाते है। 357. दोनों क्रियाओं के बाद भक्ति सुधा के अहो 365. राग, द्वेष, कषाय, इन्द्रिय, परिषह उपसर्ग भावों में 24 तीर्थंकरों के नाम तथा संक्षिप्त तथा अष्ट विध कर्म के जीतने से जिन रुप से गुण स्मरण किया गया। ‘सामायिक' कहलाते है। जिन नाम तीर्थंकर का पर्याय के आदि कर्ता तीर्थंकर देव ही होते है। वाची नाम है। 358. तीर्थंकर (24) स्तुति को भावों से करने पर 366. जैन धर्म “तीर्थंकर वादी” है परन्तु ईश्वर सम्यग् दर्शन का निर्मली करण होता है। वादी नहीं। धर्म श्रद्धा गहरी होती है। 367. सभी तीर्थंकरों ने अपने समय में चारित्र धर्म (अहिंसा सत्य आदि) आत्म धर्म की 359. भगवत्स्मरण (नाम) को शुन्य न मानें! श्रद्धा स्थापना की है, अधर्म में लगी तथा धर्म व विश्वास का बल लेकर आप स्मरण करोगे से भ्रष्ट हुई जनता को पुनः धर्म में स्थिर तो विश्व की निधियाँ आपके श्री चरणों में किया है। धर्म के 'सन्मुख' करते ही है। होगी। 'लोगस्स' का सदैव स्मरण करते रहो। 368. हमारे आदर्श वे ही होने चाहिये जो भूतकाल में सकर्मक होकर भी सत्य-अहिंसा 360. ऋषभदेव का नाम आदि धर्म पुरुष रुप, आध्यात्मिक साधनो के बल पर व अरिहंत नेमिनाथ दया पुरुष, प्रभु महावीर क्षमा जिन बन गए। हमें भी वही बनाना चाहते पुरुष, गजसुकुमाल मुनि मोक्ष (क्षमा) पुरुष हैं, जो खुद बने है। आदि आदि आते है। 369. नाम नन्हा है तो भी श्रद्धा का जल, ज्ञान 361. प्रभु महावीर व गौतम स्वामी का नाम लेते का कागज तथा चारित्र की कलम से लिखते ही उनका जीवन याद आता है न । “नाम ही जाइए, लाभ ही लाभ है। में बहुत शक्ति होती है।" 370. सूखी स्याही की टीकिया कुछ नहीं कर सकती है। बिना श्रद्धा ज्ञान व चारित्र के 362. तीर्थंकरो के नाम स्मरण कीर्तन संबल रुप नाम स्मरण से क्या लाभ होगा? है। एक धुन व लय से स्मरण कीजिए:, उनका पथ हमें जरुर जरुर मिलेगा। हम 371. किसी से रुपये लेने है, जज पूछता है कि भी उन्ही के पथ पर चलेंगे। उच्च भावनाएँ क्या नाम है? नाम नहीं बताने पर क्या जागेगी ही। "केस" चलेगा? नहीं! 372. चौरासी में भटकते हुए जीवों को मोक्ष मार्ग 363. “तीर्थते ऽ नेन इति तीर्थम् धर्म एवं तीर्थम् ।। दाता का नाम आलस्यवश कि वा उद्दण्डताआचार्य नमि।। अर्थात् संसार समुद्र से तिरने वश भगवान का गुण कीर्तन न करे तो (हमारा वाला दुर्गति से उद्धार करने वाला “धर्म" चुप रहना) अपनी वाणी को निष्फल करना ही सच्चा तीर्थ' है।

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