Book Title: Vinay Bodhi Kan
Author(s): Vinaymuni
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sangh

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Page 334
________________ सकल जैन समाज... -: भव पार भवि होते :मैत्री को अपनाते, भव पार भवि करते क्षमा को जो दूर करे, भव पार नहीं होते ॥टेर ॥ अपनों में पराया जो, मोह दृष्टि में दिखता है। कौन शत्रु मित्र होता, सब कर्मों का लेखा है। यात्रा के मुसाफिर हो, उलझे क्यो मारग में ॥क्षमा ......॥ ॥१॥ "मित्तीमे सव्व भूएसु" आप्त पुरुष वचन कहते । "खामेमि सव्वे जीवा" फिर भी भकटि सर पे । तुम यश से जीना चाहो, सब भी यही चाहते हैं । क्षमा ...॥२॥ प्रिय अप्रिय की भटकन में, हम श्रेय को भूलगए । 'संख्या की दौड़ में रत, हम साध्य - से दूर हुए। रह गए बस जयकारे, वाहवाही में झूम रहे ॥ क्षमा ......॥ ॥३॥ जिनसूत्रों के रहस्यों को, जो सुलझाते, कहते । स्वयं में उलझ बैठे, जन जन के मन टूटे मात्र वचनों की शक्ति से, श्रेयस्कर नहीं होते ॥ क्षमा ॥॥४॥ तँमानै सब जग में. मैं ही हँ अक्लमंद । चउद पूरबी चउज्ञानी, नहीं तोड़ सके भव फंद । खुद री निबलाई ने, कद तूं सहलासी ॥ क्षमा ......॥ ॥५॥ नभ से नीचे देखों, रेखांकित भू दिखता । 'भू' से नभ को देखो, सब एक नेक दिखता। "आकाश"के सम बनकर, सबको अपना करलो॥क्षमा ॥६॥ 'सीता' के निमित्त से जो, 'दशमुख' का अपयश हआ । बन तीर्थंकर गणधर, भावी में यश होगा। तुम भूतकाल भूलों, 'वर्द्धमान' में आ जावो ॥७॥ तर्ज - होठों से छूलो तुम मेरे गीत ..... छोटों पर वात्सल्य धरे, पूज्य का हो समादर ॥ ऐसे धर्म संघ का, पार हुआ भव सागर ॥ दोहा ॥

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