Book Title: Vinay Bodhi Kan
Author(s): Vinaymuni
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 294
________________ 5. धर्म - सदाचार 460. चक्षुदाता - अर्थात् जिस तरह शरीर में आँखों की ज्योति की क्या कीमत होती है 6. प्रयत्न - परिश्रम उसी प्रकार प्रभु भी भव्य जीवों को श्रुतज्ञान उपरोक्त छह ही पूर्ण रुपेण परिभाषाएं लागू की आँख देते है, अंधे को आँख मिल होती है, वे ही भगवान कहलाते है। जाय तो कितना आनन्दित होता है, ज्ञान से ही विवेक की आँख खुलती है। विनय 452. प्रत्येक तीर्थंकर “द्वादशांगी" की स्वयं अर्थ रुप देशना देने से आदिकर कहलाते हैं। से ही ज्ञान - विद्या आती है। धर्म के आदि कर्ता होते है। आदिनाथ भी | 461. धर्म चक्रवर्ती - चक्रवर्ती मनुष्यों के शरीरों कहते है। बारह अंग सूत्रों को “द्वादशांगी" पर शासन करते है जबकि धर्म चक्रवर्ती कहते है। भीतरी कषाय अज्ञान दोषों को दर कराते अतः वे हृदय सम्राट कहलाते है, शरीर 453. तीर्थ याने (घाट) भी होता है। नदियों को घाट से ही पार किया जाता है, तीर्थ याने सम्राट - जो शरीरो पर राज करे। पुल भी है, जो तिरता है वह, भाव तीर्थ | 462. चक्रवर्तियों को भी कीचड़ से निकालने होता है। तिरता है - तिराता है तीर्थ। धर्म चक्रवर्ती होते है, चक्रवर्तियों के 454. जीवों की तीन श्रेणियां 1. जगाने पर भी भी चक्रवर्ती होते है। नहीं जगते 2. थोड़ा सा जगाने पर जग 463. छद्मस्थ अर्थात आवरण और छल। चार जाते है 3. कुछ जागे हुए ही होते है। घाती कर्मो को क्षय करने से छद्मस्थता हमारा स्थान किस नम्बर पर है? दूर हो जाती है। 455. तीर्थंकर स्वयं ही अपने आप प्रबुद्ध होने 464. कृत कृत्य होने के बाद भी केवल पर्याय में वाले, बोध पाने वाले होते है। जाग चुके उपदेश इसलिए देते थे कि - “सव्वजगजीव होते है। “अपमाए" रक्खण-दयढणाए। पावयणं भगवया 456. तीर्थंकर स्वयं ही अपने पथ - प्रदर्शक होते सुकहियं” सभी जीवों के कल्याणार्थ है, तीसरी श्रेणी के जागृत ही होते है। जागे धर्मोपदेश दिया था। और जगावे!!! 465. सर्वज्ञ - सर्वदर्शी प्रभु पहले वीतरागी बनते 457. स्वयं तीनो लोकों के आत्म दीपकों को अपने है, कषायों को छोड़ना त्यागना ही जैन समान प्रकाशमान बनाते है। (पइवाणं) साधना का रहस्य है, वीतराग अर्थात् 458. अभयदान के दाता- गौशालक को भगवान चारित्राचार के पूर्ण पालक हो गये। ने बचाया, अनंत करुणाकर ने आकुल 466. “संपाविउकामाणं" मोक्ष की कामना रखने व्याकुल मानव जाति को अभयदान से वाले ऐसे अरिहन्त भगवान। कामना का अर्थ निराकुल बनाया था। यहां वासना या आसक्ति नहीं होकर ध्येय459. दोनों में श्रेष्ठदान अभयदान माना गया है, लक्ष्यता - उद्देश्य होना चाहिये। सामायिक भी अभयदान ही है। 2700

Loading...

Page Navigation
1 ... 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336