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कारण क्या है खोजें? व्रत में निर्जरा एवं संवर दोनों है। निर्जरा एवं संवर ये ही मुक्ति का मार्ग है। संवर बीस प्रकार, निर्जरा बारह प्रकार को अच्छी तरह समझे, फिर धारण
अपना बल, शक्ति अन्तरवीर्य का निरीक्षण करके गुणों को, व्रतों को, नियमों को धारण करो । धर्म ही तो धारण किया जाता है । जैसे-पुराने वस्त्र उतारे जाते हैं और नए धारण किये जाते है, वैसे ही अवगुण छोड़े जाते है और गुणों को धारण किया जाता है।
करें।
भगवान का बताया मार्ग जगत के प्राणियों के लिये हितकारी ही है, वैसे बल को, शक्ति को समझकर व्रत धारण करने की आज्ञा है - प्रभु की । जब पूरी शक्ति जग जावे तो महाव्रत धारण किया जाता है, नहीं तो महाव्रतों की पूर्व भूमिका, श्रावक के बारह व्रत शक्ति अनुसार धारण करके आगे की भूमिका तैयार हेतु ही श्रावक वृत्ति हैं।
भविष्य में तो सम्पूर्ण पापों का आश्रवों का त्याग करना ही श्रावक का मनोरथ /भावना/उद्देश्य रहता है, परन्तु वर्तमान में “बलं थामं च पेहाए” सूत्रानुसार पूर्व भूमि के अभ्यास हेतु कुछ न कुछ धारण करना
23) महाव्रत पाँच : अणुव्रत से बड़ा महाव्रत होता है | महाव्रत (चारित्र)। आते कर्म को रोकता है, कर्म प्रवेश से बचाता है | महाव्रत जगत का अभय दाता है। महाव्रत अर्थात् सत्य का धारण । महाव्रत अर्थात् चौर्य कर्म का त्याग (अचौर्यव्रत धारी) महाव्रत अर्थात् (ब्रह्म में लीन) ब्रह्मचर्य धारी, महाव्रत अर्थात इच्छाओं का देश निकाला, महाव्रत अर्थात कषायों को प्रतिपल चुनौती देना ! कहा भी है.... दुर्गुण ने कोई कही आवो, कही आवो, कोई कही आवो। तारे-ताबे (आधीन) थवु नथी, अने दुर्गति में हवे जवु नथी। "दुर्गुणों, दुर्गति, दुष्कर्म आदि का विसर्जन" - महाव्रत-समुद्र को भुजाओं से तैरना, असिधारा पर चलना, लौह के चने चबाना सरल है, परन्तु महाव्रत धारण करना मुश्किल है । विशेष निशाद्र, निशांत और प्रशांत व जीवन में पूर्ण शांति-पूर्ण दाता जगत में यदि, कोई स्थान है वह है संयम । संयम की प्रथम सीढ़ी है “महाव्रत" जो साधक को प्रत्येक पल में कर्मों की अनन्त श्रेणियों को क्षय करती ही रहती है । आत्मा को जगाओ, मोक्ष मार्ग में बढ़ाओ। पापों को त्यागो, यही मार्ग सर्वश्रेष्ठ है। जिसे तीर्थंकरों ने बताया है । पूज्य पुरुषों द्वारा बतलायें एवं सेवित ध्रुव मार्ग पर चलने का पुरुषार्थ करके हे आत्मन ! तू भी परम पद का अधिकारी बन सकेगा। 24) श्रावक के भंग (उनपचास) अहो ! प्रभु का कैसा निर्दोष एवं शुद्ध मार्ग है, जहाँ शांति है, लेश मात्र भी दुःख नहीं । “बलं थामं च पेहाए सद्धा मारु मप्पणो" (दशवैकालिक सूत्र)
श्रावकपना भी साधुपना की तैयारी की रूपरेखा है । वह भी कभी न कभी, जब पूरी शक्ति जगेगी, पूर्ण पाप का त्यागी बनेगा ही। अतः हे आत्मा ! जागो-उठो और तैयारी करके शक्ति को तोलकर श्रावक वृत्ति के नियम अवश्य धारण करलो । उनपचास भंग का स्वरूप तीनतीन बातों को समझाने से ध्यान में बैठ जावेगा । मन, वचन, काया ये तीनों योग, करना नहीं, कराना नहीं और अनुमोदना नहीं । इस प्रकार पापों का | आश्रवों का रोक, करूं नहीं मन से, करूं नही वचन से, करूं नहीं काया से, आदि-इस प्रकार उनपचास तरीकों से पाप को रोक सकते हैं। भाग्यशाली आत्मा ! मौका न छोड़, करले और हो जा ज्ञानी । तत्त्व बुद्धि से आत्मा की शक्ति का निर्णय करके मोक्ष मार्ग में बढ़ते जाना । “वड्ढ़माणो भवाहि य"