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णाणेण य मुणि होई, तवेण होइ तावसो || | 30) एवं तु संजयस्सावि, पावकम्म निरासवे । समभाव से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, | भव कोड़ी संचियं कम्म, तवसा निज्जरिज्जइ ।। ज्ञान से मुनि व सत्य तप से ही तापस होता है। बहुत बड़ा तालाब सुखाने के समान पापकर्म व आश्रवों 26) सामायारिं पवक्खामि, सब दुक्ख विमोक्खणिं।
को रोक देने वाले मुनि तप से करोड़ो जन्मों के संचित जे चरित्ताण निग्गंथा, तिण्णा संसार सागरं ।।
कर्म नष्ट कर देते है। आगम में कथित दस प्रकार की समाचारी सब दुःखों
31) सिद्धाइ गुण जोगेसु, तेतीस आसायणासु । से मुक्त कराने वाली है, इसका आचरण करके
जे भिक्खू जयई निच्चं, से ण अच्छइ मंडले ॥ अनेक निर्ग्रन्थ संसार सागर को तैर गए । सज्झाए चरणविधि के प्रथम बोल व 33 आशातना तक के वा निउत्तेण, सव्वदुक्ख विमोक्खणे || काउसग्गं बोलों मे जो भिक्खु सदा यतना करते हैं, वे संसार तओ कुज्जा, सव्व दुक्ख विमोक्खणं ।। (सागर मंडल) में परिभ्रमण नहीं करते। स्वाध्याय (आगम ज्ञान) व कायोत्सर्ग (निश्चल ध्यान) 32) भावे विरतो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोह सब दुःखों से मुक्त कराने वाले है।
परंपरेण । 27) मिउमद्दवसंपण्णो, गंभीरो सुसमाहिओ, विहरइ ण लिप्पई भव मज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणी महिं महप्पा, सीलभूएण अप्पणा ।।
पलासं।।
राग व द्वेष उत्पन्न करने वाले भावों से विरक्त मनुष्य मृदु मार्दवता से सम्पन्न, गंभीर, सुसमाधि वाले मुनि श्री गर्गाचार्य शिष्यों की महा अविनीतता के
शोक से रहित होता है व जिस प्रकार जल में उत्पन्न कारण उनसे अलग होकर दृढ़ता पूर्वक तप को
होते हुए भी कमल का पत्ता जल से अलिप्त होता है, धारण करके श्रेष्ठ शील युक्त आचार का पालन
इसी प्रकार वह मनुष्य भी राग द्वेष से उत्पन्न दुक्ख करते हुए धरती पर विचरण करने लगे।
परम्परा से लिप्त नहीं होता है। 28) णाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा एवं
33)अट्ठ कम्माइं वोच्छामि, आणुपुव्विं जह मग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छंति सोग्गइं॥
क्कम।
जेहिं बद्धो अयं जीवो संसारे परिवट्टई ।। सम्यग् ज्ञान दर्शन चारित्रतप रूपी मोक्ष मार्ग पर
जिन कर्मों से बंधा हुआ यह जीव संसार में परिभ्रमण चलने वाले जीव सुगति को जाते है ।
करता है वे कर्म अनुक्रम से आठ है। 29) जाव सजोगी भवइ ताव इरियावहियं कम्म
34) पंचासवप्पमत्तो... किण्हलेसं तु परिणमे ।।... णिबंधई सुहफरिसं दुसमय ठिइयं...
सुक्कलेसं तु परिणमे ।। मोक्ष मार्ग पर दृढ़ता पूर्वक चलकर केवल ज्ञान पाने
निर्दयता क्रूरता; ईर्ष्या व विषय, साता स्वाद वाले केवली भगवान को जब तक उनकी सयोगी
लोलुपता; माया छल दूसरों को नीचा दिखाना अवस्था होती है, तब तक केवल ईर्यावहिया किरिया
क्रमशः कृष्ण, नील व कापोत लेश्या के लक्षण है। लगती है जो सुख रूप होती है व केवल दो समय
विनय, तप, धर्म, प्रियता, धर्म दृढ़ता; पतले क्रोध की स्थिति वाली होती है पहले समय में सातावेदनीय
मान माया लोभ शांत चित्त; धर्म व शक्ल ध्यान .. का बंध, दूसरे में वेदन व तीसरे समय उसकी
समिति गुप्ति उपशम इन्द्रिय विजय क्रमशः तेजो, 'निर्जरा हो जाती है |
पदम् व शुक्ल लेश्या वाले जीव के लक्षण है।
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