Book Title: Vinay Bodhi Kan
Author(s): Vinaymuni
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sangh

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Page 285
________________ 318. अहिंसा का सूक्ष्म रुप किसी जीव को एक | 325. अभिहया आदि दस विराधनाओं में सूक्ष्म व जगह से दूसरी जगह रखना और स्थान स्थूल दोनों हिंसा का वर्णन मिलता है। बदलना भी हिंसा है, किसी भी जीव की 326. उपरोक्त दस विराधनाओं से हिंसा पाप स्वतंत्रता में किसी तरह का अन्तर डालना का प्रधानता से सेवन बताया है, फिर शेष भी हिंसा है। पहले जोड़ना फिर तोड़ना, पाप की आलोचना कहाँ हुई? जिस प्रकार मानो मूर्खता को पहनना है। से “सर्व पदा हस्ति पदे निमग्ना" हाथी के 319. दुर्भावना व दया में बहुत अन्तर है, दया पैर में सभी पैरों का समावेश हो जाता है, दृष्टि से धूप से छाया में रखा, तब तो उसी प्रकार हिंसा पाप में शेष 17 पापों का अहिंसा ही मानना। अन्तर्भाव हो जाता है, असत्य कषायादि 320. पूंजने आदि में हमारे भावों में दया होने से सेवन से स्वआत्मा के भाव-प्राणों की हिंसा, विराधना के भाव नहीं रहते है। जीवों के हिंसा तो होती ही है। दुर्भावना को छोड़ना प्रति कोमलता - मृदुता होनी ही चाहिए। अहिंसा ही है। 321. “मिच्छामि दुक्कड़म” के कुल 18,24,120 327. केवल मिच्छामि दुक्कडं शब्द का उच्चारण प्रकार के बताए है। पाप दूर नहीं करता, पाप दूर करता है - "मिच्छामि दुक्कड़म” शब्दों से व्यक्त 322. जिस प्रकार किसान जमीन में बीज बोने से होनेवाला साधक के हृदय में रहा हुआ पहले क्षेत्र विशुद्धि करता है, उसी प्रकार पश्चाताप का शुभ मंगल भाव। साधक भी सामायिक लेने से पहले आत्मा की असाता (काँटे आदि) को मिटाकर कोमल 328. पश्चाताप एक ऐसा ताप है (अग्नि है), बनाता है। जिससे कर्म कालिका सारी जलकर नष्ट हो जाती है। पश्चाताप एक निर्मल झरणा 323. एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय सूक्ष्म से सूक्ष्म तक की हुई विराधना के लिए क्षमा याचना करता है। वही पहचान है साधक की। 329. श्री भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यक नियुर्ति' में मिच्छामि दुक्कड़ के एकएक अक्षर का 324. हृदय को कोमल बनाकर देखें कि जितनी सुन्दर अर्थ दिया है। जीजीविषा कीड़े मकोड़े आदि जीव में है, वही आप में भी है। नरभक्षी शेर की आँखों 330. मि ति मि महवंते छ त्ति अ दोषणे छादणे में आपके जीवन का क्या मूल्य है? परन्तु होय मि ति अ मे राइ हि ओ 'दु' ति दुगछामि जो दयालु व भावुक हृदयवाले होते है, अप्पाणं ||150011 उनमें अनुकम्पा व आस्था के साथ-साथ कति कडं मे पाव उत्तम डेरमितं उवसमेणं कोमलता व करुणा से भरा हृदय होता है एसो मिच्छामि दुक्कड़ - पंचक्खर थो । कहते है रामकृष्ण परम हंस किसीको भी समासेणं ||1501|| हरी घास पर चलते देखते तो उनका हृदय 331. जीव के भेद वेदना से व्याकुल हो जाता था। भाई! मौजशौक वालों के दिलों में दिल होता है 14 नारकी 48 तिर्यंच 303 मनुष्य 198 क्या ??? देवता = 563 दि

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