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12), 5) अन्तिम भव में अर्थात् चरम शरीर | में समदृष्टि शब्द लगाना जैसे समदृष्टि अविरत द्वारा कम से कम स्पृश्य गुण (4,7-10, (2,4), समदृष्टि के कुल (2,4-14)। 12-14) एवं ।
2) प्रत्याख्यानी : तिर्यंच (5), प्रमत (5,6), सवेदी नव - सवेदी में (1-9), 2) साधु में (6-14), 3) | (5-9), सकषायी (5-10), कम से कम स्पृश्य बादर कषाय में (1-9), अन्तमहर्त की स्थिति
(7-10, 12-14)। वाले गुण. (2,3,7-12,14), 5) तीर्थंकर
| 3) प्रमतः (1-6), समदृष्टि (2,4-6), अप्रतिपाति भगवान द्वारा स्पृश्य (4,6-10,12-14), 6)
समदृष्टि (4-6), अप्रतिपाति द्वारा स्पृश्य भव्य द्वारा कम से कम स्पृश्य (1,4,7-10,
(1,3,4-6)। 12-14)।
4) अप्रमत : (7-14), सवेदी (7-9), सकषायी दस - लोभ कषाय में (1-10), 2) प्रत्याख्यानी
(7-10), श्रेणी में (8-12), सयोगी (7-13), में (5-14), 3) समदृष्टि छद्मस्थ में
अन्तर्मुहुर्त स्थिति (7-12,14) मरण (2,4,5 से12), एवं ।।
(7-11,14), अनाहारक (13,14), शाश्वत इग्यारह- आठ कर्म वाले में (1-11). प्रतिपाति के
(13)। (11-1), मोह कर्म में (1-11), 4) क्षायिक | 5) सवेदी : (1-9), समदृष्टि (2,4-9), प्रत्याख्यानी सम्यक्त्व में (4-14), 5) मरण के (1,2,4- | (5-9), साधु (6-9) श्रेणी (8,9), शाश्वत 11,14) इनमें जीव काल करता है, 6) |
(1-4,6), मरण (1,2,3,4-9) अप्रतिपाति समदृष्टि में (4-14) एवं ।
6) सकषायी : (1-10), श्रेणी (8-10), अप्रमत - बारह - छदमस्थ के (1-12), 2) समदृष्टि के ।
(7-10), साधु (6-10), प्रत्याख्यानी (5-10), (2,4-14), 3) अप्रतिपाति द्वारा स्पृश्य
सम्यक्त्वी (2,4-10)। (1,3-10, 12-14), 4) एकांत पंचेन्द्रिय
7) चारित्री : सामायिक (6-9), छेदो (6-9), सूक्ष्म जीवों में (3-14)
सं. (10), यथाख्यात छदमस्थ (11,12), तेरह - सयोगी में (1-13) 2) एकान्त भव्य एवं
यथाख्यात (11-14)। एकान्त शुक्ल पक्षी में एवं एकान्त त्रस
और भी इस प्रकार अनेक बोल बनाए जा जीव में (2-14)
सकते है। इस अभ्यास में उपयोग गहरा एकाग्र चौदह -समुच्चय संसारी जीव में एवं मनुष्य में (1- |
हो जाता है, कर्म निर्जरा विशेष होती है, कषाय, 14), 2) भव्य एवं शुक्ल पक्षी में (1-14)
इन्द्रिय विषय शान्त रहते है; संसार की ओर त्रस में (1 से 14)
ध्यान नहीं जाता, उत्तम धर्म ध्यान बनता है, और भी इसी प्रकार |
तीर्थंकर गोत्र बंध के ज्ञान सम्बंधी बोलों की
आराधना होती है, 18 पाप के त्याग सहित उत्तम 1) समदृष्टि : 1. एकान्त प्रतिपाति (दूसरा), अविरत
सामायिक होती है । तत्व केवली गम्य । (2,4), चारित्र के अधारक (2,4,5), प्रमत
पूर्व कृत महापुण्य के उदयमान होने पर ही अप्रतिपाति (4,5,6), प्रमत्त-सवेदी (2,4,5,6), बादर कषायी (2,4-10), उपशम (4-11),
जीवों को उत्तम धर्म की उत्तम सामग्री प्राप्त होती है। छदमस्थ (2,4-12), सयोगी (2,4-13), प्रत्येक
नमो अरिहंताणं, श्रद्धा वचन - जिण प्रवचनों की आराधक आत्माओं के चरणों में वंदना।