Book Title: Vinay Bodhi Kan
Author(s): Vinaymuni
Publisher: Shwetambar Sthanakwasi Jain Sangh

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Page 180
________________ दोष नष्ट हो सके वह विधि करना, कहीं एक दोष | पापों का पूरा त्याग नहीं किया, जितना किया उसमें की निवृत्ति करने में दूसरे अनेकों दोष न बढ़ जाए। भी किसी दोष का सेवन किया, एक भी पाप का जो पूरा नहीं कर सकते, उनको थोड़े में ही संतोष अंश भी सेवा तो मिच्छामि दुक्कडं । 6 काय के कर लेना चाहिए, जिन्होंने थोड़े में, संतोष मान | सब जीव मेरे ही समान पीड़ा का अनुभव करते हैं, लिया हो, उन्हें पूरा करने की क्षमता को प्राप्त उनमें किसी भी जीव की लेश मात्र भी हिंसा की करना चाहिए। अथवा, दुःख दिया तो मिच्छामि दक्कड़ | जो कोई क्रोध का, मान का, लोभ का अंश मात्र भी __ अपने सर्व जीवन काल के सर्व वर्षों, सर्व महीनों, सर्व दिनों, सर्व महतॊ. सर्व समयों में मैनें सेवन किया, जीव-अजीव पदार्थों पर राग किया, सुदेव सुगुरु सुधर्म की आराधना में जो कोई प्रमाद द्वेष किया, अल्प भी राग द्वेष किया, इनके छेदन के किया, बड़े दोषों का सेवन किया, छोटे दोषों का, योग्य, अनेक प्रकार की उत्तम वैराग्य व वीतराग अंश मात्र भी दोष का सेवन किया तो मिच्छामि भाव उत्पादक भावनाओं के चिंतन मे प्रमाद किया, दुक्कड़ | जो कोई मिथ्यात्व को , कुदेव गुरू तो मिच्छामि दुक्कड़। धर्म को अंश भी माना तो मिच्छामि दुक्कई । 25 चत्तारि ए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाइ मिथ्यात्व, सम्यक्त्व के पांच अतिचार सेवे हो, अनुमोदे पुण्ण भवस्स || सूत्र दशवैकालिक - ये चारों क्रोध हों, व्यवहार समकित के 67 बोलों, सम्यक्त्व के आदि कषाय पूर्ण रूप से पुनर्जन्म रूपी वृक्ष का मूल आठ आचारों की आराधना न की हो तो मिच्छामि से सिंचन करते है । राग और द्वेष ही कर्म बंध के दुक्कड़ बीज है। देव गुरु धर्म सूत्र में, नव तत्वादिक जोय । हे भगवान! जो कोई मैंने अपने जीवन काल अधिका ओछा जे किया, मिच्छामि दुक्कडं मोय ।।। में क्षमा धर्म की उत्तम आराधना करके, अपनी व पर की आत्मा को शान्त नहीं किया; विनय धर्म धारण किए हुए, 12 व्रतों में एक एक व्रत की, मृदुता की उत्तम आराधना नहीं की, सरलता कहकर, 14 नियमों में, सामायिक, संवर,पौषध, धर्म की व संतोष धर्म की उत्तम आराधना नहीं की, प्रतिक्रमण की आराधना में, नवकारसी, पोरिसी, अंश मात्र भी कमी रखी तो मिच्छामि दुक्कड़। स्वएकाशन, आयम्बिल, उपवास, बेला, तेला, दोष नहीं देखे तो मिच्छामि दुक्कड़ । जो कोई अठाई आदि तप आराधना में, रात्रि चौविहार जीवन में अर्थ दण्ड, अनर्थ किया, तेजो पदम प्रत्याख्यान की आराधना में, चार स्कंध में, और शुक्ल लेश्या में नहीं वर्ता, कृष्ण नील कापोत लेश्या भी अनेक प्रकार की साधना में, स्वयं करने, में वर्ता; आर्त ध्यान, रौद्र ध्यान किया, धर्म ध्यान दूसरों से कराने व अनुमोदना में जो कोई दोष का में नहीं वर्ता; विकथा रूप प्रमाद किया, पांच प्रमाद सेवन किया, पूर्ण शुद्धि व विनय को धारण नहीं किए, तीन शल्यों का अंत नहीं किया तो मिच्छामि किया, उस सबका बार बार मिच्छामि दुक्कड़ । दुक्कड़। असार संसार को सार जाना, एकत्व भाव भिक्खाए वा गिहत्थे वा सुब्बए कम्मई दिलं | - का चिंतन न कर, मोह किया तो मिच्छामि सूत्र उत्तराध्ययन । दुक्कड़। भिक्षु हो या गृहस्थ सुव्रती सुन्दर-दिव्य गति सम्पूर्ण 33 बोलों में (चरण-विधि के) एक एक को पाते है । जो कोई मैंनें हिंसा से लेकर विस्तार बोल कहकर छोड़ने योग्य को छोड़ा नही; ग्रहण पूर्वक एक एक पाप गिनते हुए, मिथ्यात्व तक सब करने योग्य को ग्रहण नहीं किया; धर्म के सैंकड़ो

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