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वीरस्तुतिः ।' ' संयमी, वर्णी, योगी साधुश्च तापसः । ऋषियतिमुनिमिक्षुः संयत: श्रमणो व्रतीति" धनंजयः ।, “यतिमेदे, साधुमेदे वा, मिक्षाजीविनि, शरीरभेदे वेति शब्दस्तोममहानिधिः" । "तपखिनि, श्रमणः परिवाद, संन्यासीति पूज्यपादाः” । जैनमिक्षुके, निम्रन्थे चापि, 'श्राम्यतीति, एगे सुभक्खंधे, दस अज्झयणा, सत्तवग्गा, दस उद्देसणकाला, दस समुद्देसणकाला, संखेन्नाई पयसहस्साई, ,' अन्तकृद्दशांगः-अन्तगडदाग सूत्रमें अन्तकृत् (तीर्थंकरादि) पुरुषोंके नगर, उद्यान, वनखंड, राजा, मातापिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, ऐहिक और पारलौकिक ऋद्धि, भोगपरित्याग,प्रव्रज्याग्रहण, श्रुतपरिग्रह, तप, उपधान, बहुविधप्रतिज्ञाराधन, क्षमा, आर्जव, मार्दव, सल सहित शौच, सतरह प्रकारका संयम, उत्तम ब्रह्मचर्य, अकिचनता, तप, क्रिया, समिति, गुप्ति, अप्रमादयोग, उत्तमखाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग का खरूप, उत्तम संयमप्राप्ति और परिषह जीतनेवाले पुरुषोंका चारप्रकारके घातिक कर्म क्षय होने से केवलज्ञानका प्राप्त करना, (भनन्त चतुष्टयकी प्राप्ति ) मुनि पर्यायके पालन करनेकी अवधि, पादपोपगत पवित्र मुनिवर जितने भकों (भोजन समयों) को बिताकर जहा अन्तकृत् हुए वह विवरण और भी मुनिराज कि जो मुक्तिके अचल सुखोंको प्राप्त हुए, इत्यादि सव वर्णन आठवें (अंतगड) अगमें एक श्रुतस्कन्ध के ही अन्दर है, इसके दश अध्ययन हैं, सात वर्ग हैं, दश उद्देशन' काल हैं, दश । समुद्देशन काल हैं, और सख्यात लाख पद है, अर्थात् २३०४००० पद सख्या है। . . अनुत्तरोपपातिकदशांगः-अणुत्तरोववाइअ दसासु णं अणुत्तरोववाइआणं नगराई, उज्वाणाई, वणखडा रायाणो, अम्मापियरो, समोसरणाई, चम्मायरिया, धम्मकहाओ, इहलोग-परलोगस्स इविविसेसा, भोगपरिम्बाया, पञ्चजामो, सुअपरिग्गहाओ, तोवहाणाई, परियागो, पडिमाओ, सलेहणाओ, भत्तपाण-पन्चक्खापाई, पावोवगमणाई, अणुत्तरोचवाइ ओ, सुकुल पञ्चाया, पुशोवोहिलाभो, अतकिरियामओ, घविजंति, + + + + + नवमे अगे एगे, सुअवधे, दस अज्झयणा, तिणि , बग्गा, दस उद्देसणकाला दस समुद्देसण, काला सक्सेजाई पयसहस्साई, . . . ,
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