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का कहना है कि गुण ही दुष्ट प्रतीत होते हैं, लक्ष्मी नहीं, क्योंकि लक्ष्मी गुणियों के पास जाने को तैयार है पर खेद है कि गुणी लक्ष्मी को बुलाते ही नहीं हैं (67) । वाक्पतिराज लोक में दुष्टों के पास लक्ष्मी देखते हैं तो कहते हैं कि वे लक्ष्मी के सहश प्रलक्मियां ही हैं जो दुष्टों में स्थित है (64)। वापतिराज का यह विश्वास है कि सच्ची लक्ष्मियां माचरणवान् के ही होती है, जपन्यों के नहीं (65) । यह बात समझ लेनी चाहिए कि लक्ष्मी कितनी ही महत्वपूर्ण क्यों न हो उसका प्रभाव गुणों से संतुष्ट हृदयों को पीड़ा नहीं पहुंचा सकता है (93)। वापतिराज उन लोगों को लताड़ते हैं जो संपत्ति को ही साध्य मानते हैं और वे कहते हैं कि यदि अत्यधिक संपत्ति प्राप्त करके भी यदि किसी की तृष्णा नहीं मिटी है, तो यह ऐसी ही बात है जैसे कोई पर्वत पर बढ़कर गगन पर चढ़ना चाहता हो (96)। यथार्थवाद की मूर्ति वाक्पतिराज कहते हैं कि जो व्यक्ति निर्धन है उसके लिए ऊंचे उद्देश्य कसे संभव हैं ? ऐसा व्यक्ति उच्च प्रयत्नों से रहित होता है (91)। ..
कृपण के स्वभाव को बतलाते हुए वापतिराज का कहना है कि कृपण दूसरों में दान-गुण को सराहते हैं, किन्तु स्वयं दान देने में हिचकते हैं, ऐसे लोगों को लज्जा क्यों नहीं पाती है (60) ? धन का दान महान व्यक्ति करते है (50)। अपनी लोकानुभूति को अभिव्यक्त करते हुए वाक्पतिराज कहते हैं कि लोक में दरिद्र व्यक्ति का शीलवान होना महत्वपूर्ण नहीं बन पाता है (17)। - लक्ष्मी की प्राप्ति के रहस्य को समझाते हुए वाक्पतिराज का कहना है कि धनी मनुष्य सदैव सुचरित्रों की खोज में रहता है, यद्यपि वह स्वयं गुणों से फिसलने की चिन्ता नहीं करता है (16) । यह माश्चर्य की बात है कि जब गुणी व्यक्ति लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं तो कभी-कभी दुर्गुणों में फंस जाते हैं, किन्तु इसमें कोई पाश्चर्य नहीं कि जब गुण-रहित व्यक्ति लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं, तो वे गुणों से बहुत ही दूर चले जाते हैं (20) । खेद है कि तुच्छ
बापतिराम की
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