Book Title: Vakpatiraj ki Lokanubhuti
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 48
________________ 77. (दुगुणी) व्यक्ति ही जिन दुर्गुणों में सचमुच घृणा (और) विमुखता दिखलाता है, (ऐसे) दुर्दशाग्रस्त (व्यक्तियों के) उन (दुर्गुणों) में दूसरा कोन (है) (जिसके द्वारा) (उनका) प्रादर किया हुआ होता है ? 78. हे हृदय ! किसी भी जगह पर शान्ति के निकट हो । कितने समय तक प्राशा से ध्वस्त हुआ (तू) खिन्न होगा ? (सच है) (स्वयं) किसी एक का ही दुःखी (होना) श्रेष्ठतर है, किन्तु सकल पृथ्वी का (दुःखी) होना) नहीं। 79. (जब) सामान्य (व्यक्ति) स्वयं के भी सुख को सम्पन्न करने के लिए समर्थ नहीं हैं तो दुःखियों के उद्धार करने का विचार सामान्य (व्यक्तियों) द्वारा कैसे (संभव है)? इसलिए (सामान्य व्यक्ति) चुप चाप बैठा रहे। 80. वास्तव में (वे मनुष्य जिनमें) प्रचुर विशिष्टताएँ (हैं), अल्प (हैं), आश्चर्य ! (वह) मनुष्य (जिसमें) एक भी विशिष्टता (है) (वह) (ही) सब जगह पर नहीं (है) (और) निर्दोष (मनुष्यों) का (मिलना) भी सौभाग्य (है), हम (तो) अल्प दोष को (लिए हुए मनुष्य की) भी प्रशंसा करते हैं। 81. (सत्पुरुषों में) उत्पन्न (किसी) छोटे दोष के कारण ही सत्पुरुष (अन्य मनुष्यों के साथ) सम्बन्ध रखने में (समर्थ' होते हैं, अन्यथा उन प्रसाधारण (व्यक्तियों) के साथ सम्बन्ध कैसे (संभव) होगा ? लोकानुभूति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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