Book Title: Vakpatiraj ki Lokanubhuti
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 制组一上一下。 业 。 वाक्पतिराज को लोकानुभूति 目录 Duodog Forum 鼠鼠鼠鼠鼠 凯 凯 at from 凯 司副司副司 राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान जयपुर 可是, Lu月 一一二 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भारती पुष्प-२४ वाक्पतिराज की लोकानुभूति सम्पादक: . . डा० कमलचन्द सोगारपी सह-प्रोफेसर, दर्शन-विभाग मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर हा राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान जयपुर For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : देवेन्द्रराज मेहता A सचिव, राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान जयपुर प्रथम संस्करण: 1983 मूल्य : 12.00 सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन प्राप्ति स्थान : राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान 3826, यति श्यामलालजी का उपाश्रय मोतीसिंह भोमियों का रास्ता जयपुर-302003 ( राजस्थान ) मुद्रक : मनोज प्रिन्टर्स मोदीकों का रास्ता जयपुर Vakpatira ja ki Lokanubhuti/Phelo ophy. by Kamal Chand Sogani, Udaipur / 1983 For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान के 24 वें पुष्प के रूप में 'वाक्पति. राज की लोकानुभूति' पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है । प्राकृत भारती संस्थान प्राकृत भाषा के विकास के लिए समर्पित है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि प्राकृत भाषा का ज्ञान भारतीय संस्कृति के उचित मूल्यांकन के लिए महत्वपूर्ण है । इसका अध्ययन-अध्यापन वैज्ञानिक पद्धति से हो यह अत्यन्त आवश्यक है । प्राकृत साहित्य बहु आयामी है। इसमें लिखे गए महाकाव्य उच्च कोटि के हैं। इन महाकाव्यों में जहाँ साहित्यिक सौंदर्य भरपूर है, वहां ही वे दार्शनिक-मूल्यात्मक दृष्टि से भी अोतप्रोत हैं । डा. सोगाणी ने वाक्पतिराज द्वारा रचित महाकाव्य, गउडवहो में से शाश्वत अनुभूतियों का चयन 'वाक्पतिराज की लोकानुभूति' के अन्तर्गत करके एक नया मायाम प्रस्तुत किया है। माथानों का हिन्दी अनुवाद मूल को स्पर्श करता हुआ है। उन गाथानों का व्याकरणिक विश्लेषण देकर तो उन्होंने प्राकृत भाषा के प्रध्ययन-अध्यापन को एक नई दिशा प्रदान की है। प्राकृत भारती इस प्रस्तुतीकरण के लिए उन्हें साधुवाद देता है । हमें लिखते हुए हर्ष होता है कि उन्होंने इसी प्रकार से 10 चयनिकाए तैयार की हैं जिनको प्राकृत भारती ने अपने प्रकाशन कार्यक्रम में सम्मिलित किया है। ये सभी चयनिकाएं पाठकों को विभिन्न विषयों का ज्ञान प्रदान करेंगी और प्राकृत के अध्ययन-अध्यापन की दिशा में महत्वपूर्ण सिद्ध होंगी, ऐसी पाशा की चाती है। For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थान के संयुक्त सचिव एवं जैन विद्या के प्रकाण्ड विद्वान् महोपाध्याय श्री विनयसागरजी का प्राभारी हूँ जिन्होंने पुस्तक के प्रकाशन-कार्य में अपना पूर्ण सहयोग प्रदान किया है। पुस्तक के मुद्रण कार्य के लिए संस्थान मनोज प्रिन्टर्स जयपुर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन करता है। राजरूप टॉक अध्यक्ष देवेन्द्रराज मेहता सचिव राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान जयपुर बापतिराम की For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना यह सर्वविदित है कि मनुष्य अपनी प्रारम्भिक अवस्था से ही रंगों को देखता हैं, ध्वनियों को सुनता है, स्पर्शो का अनुभव करता है, स्वादों को चखता है तथा गंधों को ग्रहण करता है । इस तरह उसकी सभी इन्द्रियाँ सक्रिय होती हैं । वह जानता है कि उसके चारों भोर पहाड़ हैं, तालाब हैं, वृक्ष हैं, मकान हैं, मिट्टी के टीले हैं, पत्थर हैं इत्यादि । श्राकाश में वह सूर्य, चन्द्रमा धौर तारों को देखता है । ये सभी वस्तुएँ उसके तथ्यात्मक जगत का निर्माण करती हैं । इस प्रकार वह विविध वस्तुनों के बीच अपने को पाता है । उन्हीं वस्तुओं से वह भोजन, पानी, हवा प्रादि प्राप्त कर अपना जीवन चलाता है । उन वस्तुनों का उपयोग अपने लिए करने के कारण वह वस्तुजगत का एक प्रकार से सम्राट् बन जाता है । अपनी विविध इच्छात्रों की तृप्ति भी बहुत सीमा तक वह वस्तु-जगत से ही कर लेता है । यह मनुष्य 'की चेतना का एक प्रायाम है । धीरे-धीरे मनुष्य की चेतना एक लगता है कि इस जगत में उसके जैसे दूसरे हँसते हैं, रोते हैं, सुखी-दुःखी होते हैं । और क्रियाओं की अभिव्यक्ति करते हैं वस्तुनों का उपयोग अपने लिए करने का इस प्रवृत्ति के वशीभूत होकर मनुष्यों का प्रशानों की पूर्ति के लिए ही करता है नया मोड़ लेती है । मनुष्य समझने मनुष्य भी हैं जो उसकी तरह वे उसकी तरह विचारों, भावनात्रों चूँकि मनुष्य प्रपने चारों ओर की अभ्यस्त होता है, अतः वह अपनी उपयोग भी अपनी प्राकांक्षानों प्रौर । वह चाहने लगता है कि सभी उसी के लिए जीएँ । उसकी निगाह में दूसरे मनुष्य वस्तुनों से अधिक कुछ नहीं । लोकानुभूति (v) For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होते हैं । किन्तु उसकी यह प्रवृत्ति बहुत समय तक चल नहीं पाती है । इसका कारण स्पष्ट है । दूसरे मनुष्य भी इसी प्रकार की प्रवृत्ति में रत होते हैं । इसके फलस्वरूप उनमें शक्ति-वृद्धि की महत्वाकांक्षा का उदय होता है । जो मनुष्य शक्ति-वृद्धि में सफल होता है, वह दूसरे मनुष्यों का वस्तुनों की तरह उपयोग करने में समर्थ हो जाता है । पर मनुष्य की यह स्थिति घोर तनाव की स्थिति होती है । अधिकांश मनुष्य जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में इम तनाव की स्थिति में से गुजर चुके होते हैं । इसमें कोई संदेह नहीं कि यह तनाव लम्बे समय तक मनुष्य के लिए प्रसहनीय होता है । इस प्रसहनीय तनाव के साथ-साथ मनुष्य कभी न कभी दूसरे मनुष्यों का वस्तुनों की तरह उपयोग करने में असफल हो जाता है । ये क्षरण उसके पुनवचार के क्षण होते हैं। वह गहराई से मनुष्य प्रकृति के विषय में सोचना प्रारम्भ करता है, जिसके फलस्वरूप उसमें सहसा प्रत्येक मनुष्य के लिए सम्मान भाव का उदय होता है । वह अब मनुष्य - मनुष्य की समानता और उसकी स्वतन्त्रता का पोषक बनने लगता है । वह ग्रब उनका अपने लिए उपयोग करने के बजाय अपना उपयोग उनके लिए करना चाहता है । वह उनका शोषण करने के स्थान पर उनके विकास के लिए चितन प्रारम्भ करता है । वह स्व-उदय के बजाय सर्वोदय का इच्छुक हो जाता है । वह सेवा लेने के स्थान पर सेवा करने को महत्व देने लगता है । उसकी यह प्रवृत्ति उसे तनाव मुक्त कर देती है और वह एक प्रकार से विशिष्ट व्यक्ति बन जाता है । अनुभूति का जन्म होता है । इस अनुभूति को ही हम मूल्यों की अनुभूति कहते हैं । वह अब वस्तु-जगत में जीते हुए भी मूल्य-जगत में जीने लगता है । उसका मूल्य-जगत में जीना धीरे धीरे गहराई की थोर बढ़ना जाता है । वह अब मानव मूल्यों की खोज में संलग्न हो जाता है । वह मूल्यों के लिए ही जीता है प्रोर समाज में उनकी अनुभूति बढ़े इसके लिए अपना जीवन समपित कर देता है । यह मनुष्य की चेतना का एक दूसरा आयाम है | उसमें एक प्रसाधारण वाक्पतिराज की (vi) . For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्पतिराज चेतना के इस दूसरे प्रायाम के धनी है । उनकी मूल्यामक अनुभूतियां सघन हैं। उनके अनुसार गुण मूल्यवान् हैं, महापुरुष गुणों के प्रागार होते हैं, सत्पुरुष गुणों के लिए प्रयत्नशील होते हैं। वाक्पतिराज वंभव एवं धन को साधन-मूल्य के रूप में स्वीकार करते हैं । उनके लिए काव्यरस साध्य मूल्य है। वाक्पतिराज शाश्वत मूल्यों की अनुभूतियों के चक्षुषों से लोक को देखते हैं और अपने चारों प्रोर के वातावरण को मूल्यात्मक अनुभूतियों के परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास करते हैं । शाश्वत मूल्यों की पृष्ठभूमि से लोक को देखने के फलस्वरूप लोकानुभूतियां उत्पन्न होती हैं। इन्हीं लोकानुभूतियों की चर्चा वापतिराज ने की है । ये अनुभूतियाँ गम्भीर हैं और ऐसा प्रतीत होता है मानो वाकपतिराज वर्तमान में ही लोक का निरीक्षण कर रहे हों। इस प्रकार की कालातीत अनुभूतियां उनके हृदय में प्रस्फुटित हुई हैं। वे गुणवानों को देखते हैं, महापुरुषों के बारे में सोचते हैं, शासकों तथा अधिकारियों के प्रति खिन्नता प्रकट करते हैं। उनके विचार से मूल्यों में गिरावट के लिए शासक एवं अधिकारी ही जिम्मेदार हैं। अब हम यहाँ 'वाक्पतिराज की लोकानुभूति' में चयनित अनुभूतियों की चर्चा करेंगे । गुण और गुणी व्यक्ति : वाक्पतिराज का कहना है कि गुणी व्यक्ति गुणों का जानकार अपने में गुणों को प्रकट करने से होता है, किन्तु दुष्ट व्यक्ति पर-गुणों का उल्लेख 1 वाक्पतिराज ने प्राकृत के महाकाव्य गउडवहो की रचना ई० सन् 736 के प्रास-पास की थी। इस महाकाव्य में 1209 गाथाएं हैं। यद्यपि यह एक प्रशस्ति काव्य है, तथापि उस काल में अनुभूत मूल्यों का वर्णन वापतिराज ने इसमें बड़ी ही कुशलता से किया है । "As Pandit observes this is one of the best and most remarkable parts of the poem and abounds in sentiments of the very highest order" (पृष्ठ XXXI) ग उडवहो : सम्पादक : सुरु, (प्राकृत ग्रन्थ परिषद, अहमदाबाद) इन्हीं मूल्यों सम्बन्धी गाथानों में से हमने 100 गाथानों का चयन 'वाकपतिराज को लोकानुभूति' शीर्षक के अन्तर्गत किया है । लोकानुभूति (vii) For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न करने के कारण गुणों से परिचय प्राप्त करता है (6)। जो गुणवान् इस जगत में अपने गुणों का प्रदर्शन नहीं करता है वह ही सुखपूर्वक जी सकता है (30)। ऐसा प्रतीत होता है कि वाक्पतिराज को लोक में गुणी व्यक्ति प्रसफल होते हुए दिखाई दिए। प्रतः उन्होंने कहा कि दोषों के जो गुण हैं, वे यदि गुणों में भाजाएँ, तो ही गुणों को नमस्कार करना उचित है, अर्थात् जैसे दोषों के द्वारा सांसारिक जीवन में सफलता मिल जाती है, वह यदि गुणों से मिल जाय तो ही गुणों को नमस्कार करना उचित है (37)। किन्तु वाकपतिराज इस बात को भी स्वीकर करते हैं कि कभी-कभी किन्हीं गणी मनुष्यों का उत्कर्ष दूसरे गुरिणयों द्वारा आगे बढ़ने के कारण नहीं होता है। फिर भी, उनमें गुण हैं इस बात को नहीं भूला जा सकता है (82)। व्यक्ति के जीवन में गुणों के सिद्ध होने पर ही उसकी मति दोषों की तरफ नहीं झुकती है (38) । यह ध्यान रहे कि पर-गुणों की लघुता प्रदर्शन के द्वारा स्व में गुगा उदित नहीं होते हैं (39) । वाक्पतिराज का यह दृढ़ विश्वास है कि गुणों से उत्पन्न होने वाली महिमा को गुणों के झूठे प्रदर्शन के द्वारा गुण-रहित व्यक्ति प्राप्त नहीं कर सकता है। सच तो यह है कि महा गुणी व्यक्ति भी अपने गुणों के प्रदर्शन के द्वारा तुच्छता अनुभव करता है (40) । यह विश्वास किया जाना चाहिए कि महिमा. में और गुणों के फल में घनिष्ट सम्बन्ध है । किन्तु दुष्ट पुरुष महिमा को प्रगुरणों से जोड़ता है, यह उसकी भूल है (41)। गुणवानों के हृदय में गुणों से उत्पन्न मद कभी प्रवेश नहीं करता है, क्या प्रदर्शित नहीं करने पर भी उनके गुण महान नहीं होते हैं (42) ? गुणों के प्रेमी वाक्पतिराज का कहना है कि गुण अवश्य ही प्रशंसित होने चाहिए। यदि ऐसा नहीं होगा तो दोष फलेंगे और धीरे-धीरे लोक भी अगुणों के आदर से गुण-शून्य हो जायगा (45)। गुणवानों की प्रशंसा के लिए मनुष्यों में उदार भाब, सरलता आदि. गुणों का होना मावश्यक है (55)। इतना होते हुए भी वाक्पतिराज यथार्थवादी दृष्टिकोण को लिए हुए कहते हैं कि कि प्रचुर विशेषताओं वाले मनुष्य बहुत ही थोड़े होते हैं, यहां तक कि एक विशेषता वाले मनुष्य भी सब जगह पर नहीं होते हैं तथा निर्दोष मनुष्य का तो मिलना भी कठिन (viii) वाकपतिराज की For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। प्रतः अल्प दोष को लिए हए मनुष्य की भी प्रशंसा की जा सकती है (80) । गुण और दोष का मापदण्ड बतलाते हुए वापतिराज कहते हैं कि जो मरे हए मनष्यों के विषय में सूने जाते हैं वे दोष हैं और जो जीते हए मनुष्यों के विषय में कहे जाते हैं वे गुण हैं (83)। व्यवहार से ही मनुष्य पहिचाना जाना चाहिए (84)। यह दुःख की बात है कि इस लोक में लोग केवल मात्र दोषों को देखने वाले होते हैं, यहाँ कोई भी मनुष्य ऐसा दिखाई नहीं देता है जो गुणमात्र को ही ग्रहण करने वाला हो (85)। वास्तव में मनष्य में गरणों की शोभा उसके ईर्ष्या से मुक्त होने पर ही होती है । गणों का अहकार पीड़ाकारक होता है :87)। ईर्ष्यारूपी अपवित्रता को हटाने के लिए विवेकरूपी अग्नि को जलाना जरुरी है (43)। किन्तु ईर्ष्या-भाव मनुष्य पर इतना हावी होता है कि उज्जवल स्वभावी व्यक्ति भी इससे बच नहीं पाते हैं (7)। सत्पुरुष और लक्ष्मी : वाक्पतिराज कहते हैं कि यद्यपि लक्ष्मी महान होती है, तो भी गुणी यक्ति उसको तुच्छ समझते हैं, इसीलिए लक्ष्मी का गुणों से विरोध पैदा हुआ है (61) । लक्ष्मी सत्पुरुष का शीघ्रता से प्रालिंगन नहीं करती है, इसका कारण यह प्रतीत होता है कि सत्पुरुष उसको अपने पास पाने के लिए उपेक्षा भाव से प्राज्ञा देता है (62)। किन्तु यह भी निश्चित है कि सत्पुरुष के प्रभाव में लक्ष्मी भी प्रालंबन रहित अनुभव करती है । क्या किया जाय देव के कारण लक्ष्मी का सत्पुरुष से न चाहा हुअा विरह होता है (63) ? पूज्य लक्ष्मी तो धर्म से उत्पन्न होती है उसका सत्पुरुष से विरोध क्यों होना चाहिए (64) ? यह आश्चर्य है कि लोक में लक्ष्मी का कार्य विपरीतता को लिए हुए होता है। वह किसी के गुणों को दूर हटाती है तथा उसके लिए दोषों को देती है, किसी के दोषों को छुपाती है और उसके लिए प्रसिद्धि देती है (66)। यदि गुणों और लक्ष्मी की तुलना की जाय, तो वाक्पतिराज लोकानुभूति (ix) For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का कहना है कि गुण ही दुष्ट प्रतीत होते हैं, लक्ष्मी नहीं, क्योंकि लक्ष्मी गुणियों के पास जाने को तैयार है पर खेद है कि गुणी लक्ष्मी को बुलाते ही नहीं हैं (67) । वाक्पतिराज लोक में दुष्टों के पास लक्ष्मी देखते हैं तो कहते हैं कि वे लक्ष्मी के सहश प्रलक्मियां ही हैं जो दुष्टों में स्थित है (64)। वापतिराज का यह विश्वास है कि सच्ची लक्ष्मियां माचरणवान् के ही होती है, जपन्यों के नहीं (65) । यह बात समझ लेनी चाहिए कि लक्ष्मी कितनी ही महत्वपूर्ण क्यों न हो उसका प्रभाव गुणों से संतुष्ट हृदयों को पीड़ा नहीं पहुंचा सकता है (93)। वापतिराज उन लोगों को लताड़ते हैं जो संपत्ति को ही साध्य मानते हैं और वे कहते हैं कि यदि अत्यधिक संपत्ति प्राप्त करके भी यदि किसी की तृष्णा नहीं मिटी है, तो यह ऐसी ही बात है जैसे कोई पर्वत पर बढ़कर गगन पर चढ़ना चाहता हो (96)। यथार्थवाद की मूर्ति वाक्पतिराज कहते हैं कि जो व्यक्ति निर्धन है उसके लिए ऊंचे उद्देश्य कसे संभव हैं ? ऐसा व्यक्ति उच्च प्रयत्नों से रहित होता है (91)। .. कृपण के स्वभाव को बतलाते हुए वापतिराज का कहना है कि कृपण दूसरों में दान-गुण को सराहते हैं, किन्तु स्वयं दान देने में हिचकते हैं, ऐसे लोगों को लज्जा क्यों नहीं पाती है (60) ? धन का दान महान व्यक्ति करते है (50)। अपनी लोकानुभूति को अभिव्यक्त करते हुए वाक्पतिराज कहते हैं कि लोक में दरिद्र व्यक्ति का शीलवान होना महत्वपूर्ण नहीं बन पाता है (17)। - लक्ष्मी की प्राप्ति के रहस्य को समझाते हुए वाक्पतिराज का कहना है कि धनी मनुष्य सदैव सुचरित्रों की खोज में रहता है, यद्यपि वह स्वयं गुणों से फिसलने की चिन्ता नहीं करता है (16) । यह माश्चर्य की बात है कि जब गुणी व्यक्ति लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं तो कभी-कभी दुर्गुणों में फंस जाते हैं, किन्तु इसमें कोई पाश्चर्य नहीं कि जब गुण-रहित व्यक्ति लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं, तो वे गुणों से बहुत ही दूर चले जाते हैं (20) । खेद है कि तुच्छ बापतिराम की For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । स्वभावी व्यक्ति गुणों को धन के लिए बेच देते हैं, पर उच्च स्वभावी व्यक्ति धन से गुणों को लाना चाहते हैं (21) । बाक्पतिराज इस बात से दुःखी प्रतीत होते है कि लोक में यह देखने में माता है कि गुणी व्यक्ति वैभव पर पान व्यक्तियों को तथा वैभवशाली व्यक्ति गुणों में महान व्यक्तियों को कुछ भी नहीं समझते हैं। वे मापस में एक दूसरे को छोटा करने में लगे रहते हैं (44)। इससे हानि होती है मोर अच्छे कार्य नहीं हो पाते हैं। सम्बन-सत्पुरुष : वाकपतिराज के अनुसार सज्जनों को दो दुःख रहते हैं। एक प्रोर यह दुःख रहता है कि वे सत्पुरुषों के काल में उत्पन्न नहीं हुए तथा दूसरी मोर यह दुख रहता है कि वे दुष्ट पुरुषों के काल में उत्पन्न हुए (24)। जब कहीं सत्पुरुषों की बात को मूढ़ लोग नहीं समझते हैं, तो वे उस स्थान को छोड़कर अन्य स्थान को चले जाते हैं (23)। यह उच्च कोटि का व्यवहार है कि सज्जन व्यक्ति अपने प्रति किए गए अपराध के कारण भी अपराधी के प्रति निम्न स्तर की क्रियानों में प्रवृत्ति नहीं करते हैं (36)। सत्पुरुषों का गजामों से भी कोई प्रयोजन नहीं होता है । चूकि सत्पुरुष प्रासक्ति-रहित होते हैं, इसलिए विधाता के साथ भी संघर्ष करने के लिए घरूपी कटिबंध से बँधे हुए रहते हैं (46)। सत्पुरुष वैभव का त्याग करते हैं, मरण का स्वागत करते हैं । इसका प्रभाव यह होता है कि यमराज भी उनके जीवन को बढ़ा देता है (52) । सत्पुरुषों का यश अवश्य फैलता है, किन्तु धीरे-धीरे सत्पुरुषों के विषय में गुणों के उद्धार कम हो जाते हैं । सदैव किसी का यश नहीं चलता है (76)। सत्पुरुष प्रसाधारण व्यक्ति होते हैं, उनमें कोई छोटा दोष रहे तो ही अच्छा है, वरना उनके साथ कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकेगा (81) । सत्पुरुष किसी के एक गुण की भी प्रशंसा करते है (86) । सत्पुरुष इस बात से ही धीरज धरते हैं कि उनके द्वारा किसी को तो संतोष होता ही है (89) । सज्जनों को उस समय दुःख होता है जब वे निर्धनता के नोकानुभूति (xi) For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण किसी को स्नेह सहित भेट नहीं दे पाते हैं (90)। वाक्पतिराज का कथन है कि सज्जन व्यक्ति उदारता-वश यदि किसी की प्रशंसा करता है तो वह भी झूठ बोलने और चापलूसी करने के कारण दुष्टता को प्राप्त कर लेता है 195)। सज्जनों की कितनी ही निन्दा की जाय उससे उनका कुछ भी नहीं बिगड़ता है, बल्कि वह निन्दा एक न एक दिन निन्दा करने वाले दुष्टों पर ही घटित हो जाती हैं (5)। वाक्पतिराज कहते हैं कि दुष्ट का यह स्वभाव होता हैं कि वे नीच-संगति में ही प्रसन्न होते हैं यद्यपि सज्जन उनके निकट होते हैं। यह निश्चय ही स्वेच्छाचारिता है कि रत्नों के सुलभ होने पर भी दुष्टों द्वारा कांच ग्रहण किया जाता है (58)। . शासक और अधिकारी वर्ग : . . वापतिराज लोक में यह देखते प्रतीत होते हैं कि शासक मोर मधिकारी वर्ग का व्यवहार मूल्यों से रहित होता है। वे अपने स्वार्थों को ध्यान में रखकर ही कार्य करते हैं। वाक्पतिराज का कथन है कि यद्यपि राजा धन तथा स्त्रियों के रहस्य की चौकसी से सदैव शंका करने वाले होते हैं, तथापि यह माश्चर्य है कि दुष्ट व्यक्ति ही सदैव उनके निकट रहते है (18)। वाकपतिराज को यह विश्वास नहीं होता है कि गणी व्यक्ति कभी राजानों के समीप रहेंगे। यदि कोई गुणी व्यक्ति राजामों के घरों में पहुंचते हैं तो फिर वे सामान्य व्यक्ति ही होंगे (28)। सद्गुरणों के कारण ही राजामों के द्वारा सज्जनों से घृणा की जाती है । प्रतः वाक्पतिराज.. की सलाह है कि सज्जनों को राजानों से प्रादर प्राप्त करने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए (29)। " वाकपतिराज का मत है कि सर्वोच्च अधिकारी प्रपनी मिथ्या प्रशं. सामों के द्वारा दुष्टों से ठगे जाते हैं। वे यह समझने लगते है कि उनमें प्रशंसित गुण विद्यमान है (14)। अधिकारी उत्तम बुद्धि वालों तथा चरित्र वालों को मिलने के लिए तो प्रामत्रित करते हैं पर उनका यह विचारना होता है कि उनके स्वयं के लाभ ही सर्वोपरि होते हैं (26) । अधिकारी अच्छे लोगो (xii) वाक्पतिरावक For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का अनादर करते हैं. इससे वे अच्छे लोग प्रशान्त भी होते हैं। पर अधिकारियों द्वारा दुष्टों का सम्मान देखकर वे अच्छे लोग एक क्षण में ही शान्त हो जाते हैं (27)। यह अजीब बात है कि अधिकारियों के हृदय सज्जनों का सम्मान सहन . नहीं कर सकते हैं, इसीलिए वे सज्जनों से दूर हट जाते हैं । यह ऐसे ही हैं जैसे कोई बोझ के भय से प्राभूषणों का त्याग कर देता हो (31) । अधिकारी दूसरे के गुणों को व्यक्त करने में बहुत कुटिल होते है (32)। गुणों के प्रागार महापुरुष : महापुरुष गुणों के प्रागार होते हैं। वे दूसरे के छोटे गुण से भी प्रसन्न हो जाते हैं, किन्तु अपने बड़े गुण में भी उनको संतोष नहीं होता है। इस तरह से वे शीलवान् और विवेकवान् होते हैं (10) । महापुरुषों के गुणों से सर्व प्रथम उत्तम प्रात्माएँ ही प्रभावित की जाती हैं, उनके गुण सामान्य व्यक्तियों में तत्पश्चात् ही प्रकट होते हैं, ठीक ही है, चन्द्रमा की किरणें पहले पर्वत के ऊपरी भाग पर जाती हैं, फिर धरती पर (11)। महापुरुष पर का कल्याण करने वाले होते हैं (12)। अपने हृदय की विशालता के कारण लोगों के विषय में वे अपनी सम्मतियां प्रकट नहीं करते हैं । ठीक ही है, प्रकाश की मन्द किरणें महाभवनों में ही फिरती हैं वे बाहर नहीं आती हैं (48)। प्रत्यन्त प्रोजस्वी होने के कारण महापुरुषों की योजनाएं सफल नहीं होती हैं। ठीक ही है, पुष्कलता के कारण बिजली का प्रकाश प्रांखों को चकाचौंध कर देता है (49) । महान लोग (महापुरुष) इच्छापूर्वक ही लक्ष्मी का त्याग करते हैं (50)। यदि महान लोगों को समाज कोई उपहार देता है, तो वे उस उपहार को बहुत बड़ा दर्शाते हैं (57) । यदि महान लोगों पर दुःख पाते हैं, तो भी वे सुखपूर्वक ही रहते हैं (71)। वाक्पतिराज लोक में देखते हैं कि गुणों में महान व्यक्ति मानव जाति का उपकार करने वाले होते हैं, फिर भी यह प्राश्चर्य है कि वे उच्च स्थान को प्राप्त नहीं करते हैं और कभी-कभी उनके लिए जीविका का साधन भी नहीं होता है (53)। महापुरुष जिन लोकानुभूति , (iii) For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल्यों को लोक में स्थापित करना चाहते हैं, उनके लिए प्रशंसा न मिलने पर भी वे उनको स्थापित करने के लिए संघर्ष करते रहते हैं (92) । यद्यपि महापुरुष अपने को सम्मान से अलग कर लेते हैं, फिर भी उनकी कीर्ति की जरें गहरी होती जाती हैं (94)। .. उपयुक्त लोकानुभूतियों के अतिरिक्त वापतिराज की कुछ छुट-पुट अनुभूतियां भी है। वे कहते हैं जिनके हृदय काव्य-तस्व के रसिक होते हैं उनके लिए निर्धनता में भी कई प्रकार के सुख होते हैं. और वैभव में भी कई प्रकार के दुःख होते हैं (3)। थोड़ी लक्ष्मी उपभोग की जाती हुई शोभती है, पर अधूरी विद्या हास्यास्पद होती है (4)। कवियों की वाणियों के कारण ही यह जगत हर्ष पौर शोकमय दिखाई देता है (1)। बाकपतिराज कहते है कि कुछ पर ऐसे होते हैं जहाँ केवल नोकर दुष्ट होता है, कुछ घर ऐसे होते हैं जहां केवल मालिक दुष्ट होता है, तथा कुछ पर ऐसे होते हैं जहाँ मालिक पोर नोकर दोनों दुष्ट होते हैं (22)। वास्तव में घर तो ये होते हैं जहां सभी को पूर्ण संतोष मिलता है (54)। इस जगत में कुछ लोग प्रशंसा प्राप्त नहीं करते हैं तथा कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो प्रशंसा से परे होते हैं । यहाँ प्रशसा तो प्रशंसातीत तथा जघन्य मनुष्यों के बीच में स्थित मनुष्यों की ही होती है (51)। अध्यात्मवाद की सीढ़ी पर पढ़कर वापतिराज कहते हैं कि सांसारिक सुखों को छोड़कर जो सुख हैं वे ही वास्तव में सुख हैं (68) | सांसा. रिक सुखों में प्रासक्ति होने के कारण ही दुःख अधिक उम्र लगते हैं (69) । यदि कोई सांसारिक सुखों से अपने को दूर भी करले, तो भी चित्त को ये सुख पाकर्षित करते रहते हैं। इन सुखों को त्यागना प्रत्यन्त कठिन है (70)। ... लोकानुभूतियों के उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मउडबहो में वाक्पतिराज ने जीवन के मूल्यात्मक पक्ष का सूक्ष्मता से अवलोकन किया है। इसी विशेषता से प्रभावित होकर यह पयन (बापतिराज की लोकानुभूति) जापतिराषाको (xiv) For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है । गाथाम्रों का हिन्दी अनुवाद मूलानुगामी बनाने का प्रयास किया गया है । यह दृष्टि रही है कि अनुवाद पढ़ने से ही शब्दों की विभक्तियाँ एवं उनके अर्थ समझ में आजाएँ । अनुवाद को प्रवाहमय बनाने की भी इच्छा रही है । कहाँ तक सफलता मिली है इसको तो पाठक ही बता सकेंगे । अनुवाद के अतिरिक्त गाथाओं का व्याकरणिक विश्लेषण भी प्रस्तुत किया गया है। इस विश्लेषण में जिन संकेतों का प्रयोग किया गया है, उनको संकेत सूची में देखकर समझा जा सकता है । यह श्राशा की जाती है कि व्याकरणिक विश्लेषरण से प्राकृत को व्यवस्थित रूप से सीखने में सहायता मिलेगी तथा व्याकरण के विभिन्न नियम सहज में ही सीखे जा सकेंगे। यह सर्व विदित है कि किसी भी भाषा को सीखने के लिए व्याकरण का ज्ञान प्रत्यावश्यक है । प्रस्तुत गाथानों एव उनके व्याकरणिक विश्लेषण से व्याकरण के साथ-साथ शब्दों के प्रयोग भी सीखने में मदद मिलेगी । शब्दों की व्याकरण और उनका अर्थपूर्ण प्रयोग दोनों ही भाषा सीखने के प्राधार होते हैं अनुवाद एवं व्याकरणिक विश्लेषण जैसा भी बन पाया है पाठकों के समक्ष है । पाठकों के सुझाव मेरे लिए बहुत ही काम के होंगे । आभार : 'वाक्पतिराज की लोकानुभूति' इस पुस्तक के लिए प्रो० नरहर गोविंद सुरु द्वारा संपादित गउडवहो के संस्करण का उपयोग किया गया है । इसके लिए प्रो० सुरु के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ । 'गउडवहो' का यह संस्करण प्राकृत ग्रन्थ परिषद् ग्रहमदाबाद से सन् 1975 में प्रकाशित हुआ है। मेरे विद्यार्थी डॉ० श्यामराव व्यास, दर्शन विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर का प्रभारी हूँ जिन्होंने इस पुस्तक के हिन्दी अनुवाद एवं उसकी प्रस्तावना को पढ़कर उपयोगी सुझाव दिए । डा० प्रेम सुमन जैन, लोकानुभूति (xv) For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-विद्या एवं प्राकृत विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर, डा० उदयचन्द जैन, जैन-विद्या एवं प्राकृत विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर, श्री मानमल कुदाल, प्रागम. अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर तथा डा० हुकमचन्द जैन जैन-विद्या एवं प्राकृत विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर के द्वारा जो सहयोग प्राप्त हुमा उसके लिए भी प्राभारी हूँ। __ मेरी धर्म-पत्नी श्रीमती कमलादेवी सोगाणी ने इस पुस्तक की गाथाओं का मूल ग्रन्थ से सहर्ष मिलान किया है । इसके लिए उनका माभार प्रकट करता हूँ। इस पुस्तक को प्रकाशित करने के लिए राजस्थान प्राकृत-भारती संस्थान, जयपुर के सचिव श्री देवेन्द्रराजजी मेहता एवं संयुक्त सचिव महोपाध्याय श्री विनयसागरजी ने जो व्यवस्था की है, उसके लिए उनका हृदय से माभार प्रकट करता हूँ। सह-प्रोफेसर, दर्शन-विभाग कमलचन्द सोगाणी मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर (राजस्थान) 26.2.83 (xvi) जापतिराज को For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाक्पतिराज के समान लोकानुभूति के धनी स्व० पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ को सादर समर्पित For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथाएँ एवं हिन्दी अनुवाद संकेत-सूची व्याकरणिक- विश्लेषण 14 गउडवहो का गाथानुक्रम शुद्धि-पत्र सहायक पुस्तकें एवं कोश अनुक्रमणिका Į For Personal & Private Use Only पृष्ठ 1-37 38-39 40-70 71-72 73 74 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . वाक्पतिराज लोकानुभूति For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. इह ते जग्रंति कइणो जमिणमो जारण सप्रल-परिणाम वापासु ठिनं दीसइ पामोअ-घणं व तुच्छं व ॥ 2. णिप्रभाच्चिन वापाएँ प्रतणो गारवं णिवेसंता । जे एंति पसंसंच्चिन जयंति इह ते महा-कइणो ।। 3. दोग्गच्चग्मि वि सोक्खाइ ताण विहवे वि होंति दुक्खाई ___ कन्व-परमत्थ-रसिपाई जाण जाअंति हिमपाई।। 4. सोहेइ सुहावेइ प्र उवहुज्जतो लवो वि लच्छीए । देवी सरस्सई उण असमग्गा कि पि विडेइ ।। 5.. लग्गिहिइ ण वा सुमणे वयरिणज्जं दुज्जणेहि भण्णंतं । ___ ताण पुण तं सुप्रणाववाग्र-दोसेण संघडइ ।। 6. पर-गुण-परिहार-परम्पराएँ तह ते गुणण्णुप्रा जामा । जामा तेहिं चिन जह गुणहिं गुरिणणो परं पिसुणा ।। वाक्पतिराज के For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस लोक में वे कवि जीतते हैं (सफल होते हैं) जिनकी वाणियों काव्यों) में सकल अभिव्यक्ति विद्यमान (है)। (और इसलिए) यह जमत या तो हर्ष से पूर्ण या तिरस्कार योग्य देखा जाता है । 2. स्वकीय वाणी के द्वारा ही निज के गौरव को स्थापित करते हुए जो निश्चय ही प्रशंसा प्राप्त करते हैं, वे महाकवि इस लोक में जीतते हैं (सफल होते हैं। 3. जिनके हृदय काव्य-तत्व के रसिक होते हैं, उन (व्यक्तियों) के लिए निर्धनता में भी (कई प्रकार के) सुख होते हैं (तथा) वैभव में भी (कई प्रकार के) दुःख होते हैं। लक्ष्मी की थोड़ी मात्रा भी उपभोग की जाती हुई शोभती है तथा सुखी करती है, किन्तु किंचित् भी प्रपूर्ण देवी सरस्वती (अधूरी विद्या) उपहास करती है। 5. दुर्जनों द्वारा कही हुई निंदा सज्जनों को लगेगी अथवा नहीं लगेगी (कहा नहीं जा सकता), किन्तु वह (निंदा) सज्जनों की निंदा (से उत्पन्न) दोष के कारण उन (दुर्जनों) के (ही) घटित हो जाती है। 6. पर-गुणों का उल्लेख न करने की परिपाटी के कारण वे अत्यन्त दुष्ट व्यक्ति गुणों के जानकार वैसे ही हुए (हैं) जैसे गुणी (व्यक्ति) (अपने में) उन गुणों के कारण (ही) (गुणों के आनकार) हुए (हैं)। लोकानुभूति 3 For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. जंणिम्मल. वि खिज्जति हंत विमलेहि सज्जण-गुणेहिं । तं सरिसं ससि-पर-कारणाएँ करि-दंत-विमरणाए । 8. जाण असमेहि विहिमा जाम्राइ रिंगदा समा सलाहा वि । रिंगदा वि तेहिं विहिला ण ताण मण्णे किलामेइ ।। 9. बहुप्रो सामण्ण-मइसणेण ताणं परिग्गहे लोनो । कामं गमा पसिद्धि सामण्ण-कई प्रमोच्चे ।। 10. हरइ पणू वि पर-गुणो गहम्मि वि णिम-गुणे ण संतोसो। सीलस्स विवेमस्स अ सारमिणं एत्तिनं चेन ॥ 11. इअरे वि फुरन्ति गुण गुरुण पढमं कउत्तमासंगा। अग्गे सेलग्ग-गमा इन्दु-मऊहा इव . महीए । 12. रिणवाडताण सिवै सप्रलं चिम सिवपरं तहा ताण । णिव्वडइ कि पि जह ते वि अप्पणा विम्हसमवेति ।। वाक्पतिराज । For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___7. खेद ! चूकि उज्ज्वल स्वभावी (व्यक्ति) भी सज्जन के शुभ्र गुणों के कारण उदासी अनुभव करते हैं, इसलिए (इस बात की) समानता शशि की किरणों से हाथी के (सफेद) दांतों में (भी) (उत्पन्न) पीड़ा की वेदना (के साथ) (दर्शायी गई है)। 8. जिनके लिए असमान (व्यक्तियों) के द्वारा की गई प्रशंसा भी निंदा के समान होती है, उनके मन को उन (प्रसमान व्यक्तियों) के द्वारा की गई निंदा भी खिन्न नहीं करती है । 9 अत्यधिक लोग सामान्य मतित्व के कारण उन (सामान्य कवियों) के ग्रहण (सम्मान) में प्रसन्नतापूर्वक (तत्पर रहते हैं), इसलिए ही सामान्य कवि प्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं)। 10. दूसरे का छोटा गुण भी (महान् व्यक्ति को) प्रसन्न करता है, (किन्तु) उसे अपने बड़े गुण में भी सन्तोष नहीं (होता है)। शील और विवेक का यह इतना ही सार है। 11. महापुरुषों के गुण सामान्य (व्यक्तियों) में भी प्रकट होते हैं, (किन्तु) (उन गुणों के द्वारा) सर्वप्रथम उत्तम प्रात्माएं प्रभावित की गई है), जैसे कि चन्द्रमा की किरणें पहले पर्वत के ऊपर के भाम पर गई, (फिर) धरती पर। 12. (स्व-पर के) कल्याण को सिद्ध करते हुए (मनुष्यों) के लिए समग्र (लोक) ही अधिक कल्याणकारी (हो जाता है)। उनके लिए कुछ इस प्रकार सिद्ध होता है, जिससे वे स्वयं भी माश्चर्य को प्राप्त करते हैं। लोकानुभूति For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. पासम्मि अहंकारी होहिइ कह वा गुणाण विवरुक्खे। मव्वं ण गुणि-गम-मयो गुणत्यमिच्छंति गुण-कामा । 14. मोह-सलाहाहि तहा पहुणो पिसुणेहि वेलविज्जतिः । जह णिव्वडिएस वि गिन-गुणेसु ते किं प चितेति ।। 15. मुलहं हि गुणाहाणं सगुणाहाराण णणु परिंदाण। भग्गेसिअव्व-मग्गा कत्तो वि गुमा दाराम ।। 16. तं खलु सिरीएँ रहस्सं सुचरिप्र-मगणेक-हियो वि। अप्पाणमोसरंतं । गुहिं लोमो ण लक्खेइ ।। 17. लोएहि अगहिचिन सीलमविहव-ट्ठिअंपसणं पि । सोसमुवेइ तहिचिन कुसुमं व फलग्ग-पडिलग्गं ।। 18. णिच्चं धण-दार-रहस्स-रक्खणे संकिणो वि अच्छरिग्रं। पासण्ण-गीम-वग्गा जं तहवि गराहिवा होंति ॥ वाक्पतिराज को For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. गुणों के समीप होने पर अर्थात् गुणों के सद्भाव में वह (कोई) सम्भवतया अहङ्कारी हो जाएगा; (किन्तु) (गुणों के) अभाव में (वहकोई अहङ्कारी) कैसे (होगा) ? गुणों के इच्छुक गुणी मद रहित (होते हैं), (पर वे (ऐसे) गर्व को (अवश्य) चाहते हैं जो गुणों पर ठहरा हुआ है। 14. मिथ्या प्रशंसाओं के द्वारा सर्वोच्चाधिकारी दुष्टों द्वारा इस प्रकार से ठगे जाते हैं कि (वे) बहुत अंशों तक उन (मिथ्या प्रशंसाओं) को सिद्ध हुए निज गुणों में ही विचार लेते हैं (समझ लेते हैं)। 15. गुणियों के प्राश्रय राजाओं के लिए गुणों की प्राप्ति करना अवश्य ही सुलभ (है), किन्तु दरिद्रों के लिए (गुणों की प्राप्ति करना) कहाँ से सम्भव (है) ? (उनके लिए) गुण (उनके ही द्वारा) खोजे जाने योग्य मार्ग (होते हैं)। 16. वास्तव में लक्ष्मी की (प्राप्ति का) वह (यह) रहस्य (है) कि (धनी) मनुष्य सुचरित्र (व्यक्तियों) की खोज में स्थिर हृदय (होता है), यद्यपि वह गुणों से निज को फिसलते हुए नहीं देखता है । 17. दरिद्र में अवस्थित निर्मल शील भी लोक के द्वारा बिल्कुल स्वीकार नहीं किया गया है) । (अतः वह) उस अवस्था में ही फल के अग्र भाग पर लगे हुए फल की तरह कुम्हलान को प्राप्त करता है। 18. यद्यपि राजा धन तथा स्त्रियों के रहस्य की चौकसी में (व्यक्तियों के प्रति) सदैव शंका करने वाले होते हैं, तथापि (यह) आश्चर्य (है) कि दुष्ट व्यक्ति (उनके) समीप (सदैव) विद्यमान रहते हैं । कानुभूति For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. पेच्छह विवरीश्रमिमं बहुना मइरा मएइ ण हु थोवा । लच्छी उण थोवा जह मएइ ण तहा इर बहुश्रा ॥ 20. जे निव्वडिग्र - गुणा वि हु सिरि गया ते वि पिग्गुणा होंति । ते उष्ण गुणाण दूरे अगुणच्चित्र जे मघा लच्छि । 21. एक्के लहुन सहावा गुणेहि लहिउं पहंति घण- रिद्धि । अणे विसुद्ध चरिमा विहवाहि गुणे विमति ।। 22. परिवार - दुज्जणाई पहु- पिसुणाई पि होंति गेहाई । उम्र-खलाई तहच्चिन कमेण विसमाइ मष्णत्था ॥ 23. मूढे जण्णम्मिश्र मुणि गुण-सार- विवेन व इरुव्विग्गा । किं अष्णं सप्पुरिसा गामात्र वणं पवज्जंति ॥ For Personal & Private Use Only वाक्पतिराज ब Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. इस विपरीत बात को देखोः बहुत मदिरा उन्मत्त बनाती है, किन्तु थोड़ी नहीं; पर थोड़ी लक्ष्मी जैसी उन्मत्त बनाती है, वैसी (उन्मत्त) निस्सन्देह प्रचुर (लक्ष्मी) नहीं (बनाती है)। 20. आश्चर्य ! (जिनके द्वारा) गुण धारण किये गये हैं) (ऐसे व्यक्ति) अर्थात् (गुणी व्यक्ति) जिन्होंने भी लक्ष्मी को प्राप्त किया (है) वे ही (लक्ष्मी को प्राप्त कर लेने पर) गुण रहित हो जाते है । (तो) फिर गुण-रहित, (व्यक्ति), जिन्होंने लक्ष्मी को प्राप्त किया (है) वे (तो) ( लक्ष्मी को प्राप्त कर लेने पर ) गुणों से (बहुत ) ही दूर (हो जाते हैं)। 21. कुछ (व्यक्ति) (जिनके) स्वभाव तुच्छ (हैं) गुणों के द्वारा धन-वैभव को प्राप्त करने की इच्छा करते हैं, दूसरे (व्यक्ति) (जिनके) चरित्र विशुद्ध (हैं) वैभव के द्वारा गुणों को चाहते हैं । 22. घर (उत्तरोत्तर) श्रम से कष्टदायक (होते हैं) : (जहाँ) (केवस) नौकर दुष्ट (हैं), (जहाँ) (केवल) मालिक दुष्ट (हैं) तथा (जहाँ) दोनों दुष्ट (हैं) । इस प्रकार ही तुम (सब) जानो। 23. (किसी) प्रसंग मामले) में मूढ जनों द्वारा (सत्पुरुषों के) मुणों का महत्त्व (तथा) (उनके) सूक्ष्म विचार नहीं समझे हुए होने के कारण (वे) सत्पुरुष उद्विग्न (हो जाते हैं), (तथा) (कोई नहीं जानता है कि) (वे) गांव से किस अन्य प्रावास-स्थल. को चले जाते हैं ? लोकानुभूति For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24. दुक्खेहि दोहि सुप्रणा अहिऊरिज्जति दिमसिअंचेन। - सुपुरिस-काले अ ण जं जं जामा णीअ-काले अ॥ 25. सुमईण सुचरित्राण प्र देता आलोप्रणं पसंगं च। पहुणो जंणिप्रम-फलं तं ताण फलं ति मण्णंति ।। 26. अण्णो वि णाम विहवी सुहाई लीलासहाई रिणविसइ। असमंजस-करणेच्चेप्र णवर णिव्वडइ पहुभावो ।। 27. अंदोलंताण खणं गरुपाण अणारे पहु-कमम्मि । हिप्रयं खल - बहुमाणावलोअणे णवर णिवाइ ।। 28. पत्थिव-घरेसु गुणिणो वि णाम जइ केवि सावसास व्व । जण - सामण्णं तं तारण किपि अण्णंचिम णिमित्त । 10 वापतिराज को For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24. सज्जन दो दुःखों द्वारा प्रतिदिन ही व्याप्त किए जाते हैं; एक और (यह दुःख है) कि (वे) सत्पुरुषों के काल में उत्पन्न नहीं हुए (तथा) दूसरी ओर (यह दुःख है) कि (वे) दुष्ट (पुरुषों) के काल में (उत्पन्न हुए हैं)। 25. उत्तम बुद्धिवालों के लिये तथा श्रेष्ठ चरित्रवालों के लिये साक्षात्कार एवं अन्तःसम्पर्क को स्वीकार करते हुए सर्वोच्च अधिकारी इस प्रकार मानते हैं (कि) जो लाभ (उन सर्वोच्च अधिकारियों को) अपने लिये (है) वह (ही) लाभ उन (उत्तम बुद्धिवालों तथा श्रेष्ठ चरित्र वालों) के लिये (भी) है । 26. वास्तव में प्रसाधारण धनाढ्य (व्यक्ति) भी प्रानन्द के योग्य सुखों को भोगते हैं, (किन्तु) केवल (वे व्यक्ति) (जिनके) पद शक्तिशाली (होते हैं) मूर्खतापूर्ण (कार्य) करने में अर्थात् मूर्खतापूर्ण सुखों को भोगने में ही सिद्ध होते हैं। 27. सर्वोच्च अधिकारियों द्वारा किये गये अनादर से प्रशान्त होते हुए महापुरुषों का हृदय (सर्वोच्च अधिकारियों द्वारा) दुष्टों के किये गए) सम्मान के अवलोकन से केवल एक क्षण में शांत हो जाता है। 28. यदि कोई नाम से गुणी (व्यक्ति। राजाओं के घरों में थोड़ी भी पहुँच सहित होते हैं (तो) (यह समझना चाहिये कि) वह (या तो) जन-समूह की तरह (उनकी) सामान्यता है (या फिर) उनके लिये कुछ अन्य ही कारण है। लोकानुभूति .. 11 . For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29. वच्चंति वेस - भावं जेहिंचिन सज्जणा गरिंदाण । ___ तेहिंचिन बहुमाणं गुणेहि किं णाम मगंति ।। 30. को व्व ण परंमुहो णिग्गुणाण गुरिणणो ण कं व दूति । जो वारण गरणी जो वा परिणग्गुणो सो सुहं जिसइ ।। 31. जं सुप्रणेसु णिप्रत्तइ पहूण पडिवत्ति - णीसहं हिमनं । तं खु इमं रप्रणाहरण - मोअणं गारव - भएण ।। 32. अविवेम - संकिरणोच्चे णिग्गुणा पर-गुणे पसंसंति । ___ लद्ध • गुणा उण पहुणो बाढं वामा पर - गुणेसु ॥ 33. सव्वोच्चिम स-गुणुक्करिस-लालसो वहइ मच्छरुच्छाहं। ते पिसुणा जे ण सहति णिग्गुणा पर - गुणुग्गारे ।। 34. सुमणत्तणेण घेप्पइ थोएणचिन परो सुचरिएण । दुक्ख परिमोसिप्रव्बो प्रप्पागोच्चे लोमस्स ।। 12 वाक्पतिरान की For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29. 30. जिन सद्गुणों के कारण ही सज्जन राजानों के घृणा भाव को प्राप्त होते हैं, मैं जानना चाहूंगा, उन्हीं (सद्गुणों) से (वे) (राजानों से प्राप्त होने वाले) उच्च प्रादर को प्राप्त करने का प्रयत्न क्यों करते हैं ? गुणरहित (व्यक्तियों) के कौन विमुख नहीं होता है ) ? (तथा) गुणी ( व्यक्तियों का होना) किसको सन्ताप नहीं पहुंचाता है ? जो गुणी नहीं है अर्थात् मूर्ख है या तो वह सुखपूर्वक जीता है या जो गुणरहित नहीं है (अर्थात् गुणवान् है किन्तु गुणों का प्रदर्शन नहीं करता है) वह सुखपूर्वक जीता है) । 31. सर्वोच्च अधिकारियों के हृदय, जो (सज्जनों के) सम्मान को सहन करने वाले नहीं होते हैं), सज्जनों से दूर हट जाते हैं, तो यह, वास्तव में, बोझ के भय से रत्नों के आभूषण का त्याग है । 32. ( अपने में ) विवेक (शक्ति) के अभाव के ( लांछन से) भय करने वाले निर्गुणी (व्यक्ति) ही पर-गुणों की प्रशंसा करते हैं; परन्तु (वे) सर्वोच्च अधिकारी (जिनके द्वारा) गुण प्राप्त किये हुए ( हैं ) पर - गुणों को व्यक्त करने) में बहुत ज्यादा कुटिल होते हैं । 34. 33. स्व-गुणों की उत्कृष्टता में बहुत इच्छुक सब ही (व्यक्ति) ईर्ष्यालु उत्साह को धारण करते हैं । (तथा) वे दुष्ट, जो गुणरहित हैं, पर - गुणों के बार-बार कहने को सहन नहीं करते हैं | (किसी के) थोड़े ही अच्छे श्राचरण से अन्य (लोग तो) (उसके) सौजन्य के द्वारा आकृष्ट कर लिये जाते हैं; (किन्तु ) ( उस) मनुष्य की आत्मा ( उस प्रपने थोड़े अच्छे आचरण से ) सन्तुष्ट कर ली जाय (यह ) कठिन है । लोकानुभूति For Personal & Private Use Only 13 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35. मोत्तु गुणावलेवो तीरइ कह णु विणय-ठ्ठिएहिं पि । मुक्कम्मि जम्मि सोच्चिम वि उणपरं फुरइ हिममम्मि ।। 36. दूमिज्गंता हिपएण किं पि चितेति जइ ण जाणामि । किरियासु पुण पअट्टाति सज्जणा णावरद्ध वि ।। 37. महिमं दोसाण गुणा दोसा वि हु देति गुण-णिहामस्स । दोसाण जे गुणा ते गुणाण जइ ता णमो ताण ॥ 38. संसेविऊण दोसे अप्पा तीरइ गुण-ट्टिनो काउं । णिव्वडिप्र-गुणाण पुणो द सेसु मई ण संठाइ । 39. मह मोहो पर-गुण-लहुअपाएँ जं किर गुणा पयति । अप्पाण-गारवंचिम गुणाण गरुप्रत्तण-णिमित्त ॥ 40. भंते जम्मि गुणुण्णमा वि लहुअत्तणं व पावेंति । कह णाम णिग्गुणच्चिन तं वहंति माहप्पं ॥ 14 वापतिराज की For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35. (वह) गर्व (जो) गुणों से ( होता है ) (उसको) विनय में स्थित (व्यक्तियों) द्वारा भी छोड़ने के लिये (समर्थ होना) कैसे सम्भव है ? वही (गर्व) जो (बाह्य में) त्यक्त होने पर (भी) (अन्तरंग) हृदय में दुगने से भी अधिक रूप से स्फुरित होता है। 36. यदि पीड़ा दिये जाते हुए सज्जन हृदय में कुछ विचारते हैं (तो) मैं (यह) नहीं जानता हूँ; किन्तु (इतना निश्चित है कि) (वे) (अपने प्रति) अपराध में (अपराधी के प्रति) भी सावध क्रियाओं में प्रवृत्ति नहीं करते हैं। 37. ( यह ठीक है कि ) गुण दोषों के लिए तथा दोष भी गुण-समूह के लिए महिमा प्रदान करते हैं, (किन्तु ) दोषों के जो गुण (हैं), वे यदि गुणों के (हों) तो उन (गुणों) के लिए नमस्कार । (जैसे दोषों के द्वारा सांसारिक जीवन में सफलता मिल जाती है, वह यदि गुणों से मिल जाय तो गुणों को नमस्कार) 38. दोषों को खूब भोग करके (भी) आत्मा गुणों को (अपने में) अवस्थित करने के लिए समर्थ होती है, किन्तु गुणों के सिद्ध होने पर (तो) दोषों में (बिल्कुल ही) मति नहीं रहती है। 39. जैसा कि लोग कहते हैं कि पर-गुणों की लघुता (प्रदर्शन) के द्वारा __ (स्व में) गुरण उदित होते हैं, वास्तव में (यह) भूल है । (सच यह है . कि) (स्व में) गुणों की महानता का कारण आत्म-सम्मान ही (है)। 40. (गुणों से उत्पन्न होने वाली) उस महिमा को (गुणों के झूठे प्रदर्शन के द्वार।) यथार्थ में गुण-रहित भी (व्यक्ति कैसे धारण करेंगे ? (सच यह है कि) गुणों में महान (व्यक्ति) भी, जिस (समय) में (उनके द्वारा अपने) गुणों का प्रदर्शन किया जाता है, (उस समय में) मानो तुच्छता को प्राप्त कर लेते हैं। लोकानुभूति 15 For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41. माहप्पे गुण-कज्जम्मि अगुण-कज्जे णिबद्ध-माहप्पा । विवरीय उप्पत्ति गुणाण इच्छंति कावुरिसा ।। 42. गुण संभवो ममो सुपुरिसाण संकमइ णेम हिसमम्मि । तेण अणिव्वूढ-मम व्व ताण गरुमा गुणा होति ।। 43. ता चेन मच्छर-मलं जाव विवेनो फुडं ण विप्फुरइ । जालअं च भवप्रा हुअवहेण धूमो म विणिप्रत्तो ।। 44. गुणिणो विहवारूडाण विहविणो गुरु गुणाण णहु किपि । लहुमन्ति व अण्णोण्ण गिरीण जे मूल सिहरेसु ।। 45. जह जह णग्धंति गुणा जह जह दोसा अ संपइ फलंति । प्रगुणापरेण तह तह गुण-सुण्णं होहिइ जनं पि ।। 46. किं व परिंदेहिं विवेअ-मुक्क-समलाहिलास-णीसंगा। विहिणो वि धीर-पडिबद्ध-परिमरा होंति सप्पुरिसा ।। .16 मापतिराम की For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41. (वास्तव में) महिमा में (और) गुणों के फल में (संबंध है), (किन्तु) दुष्ट पुरुष (जो सोचते हैं कि) अगुणों के फल के द्वारा महिमाएँ बँधी हुई (हैं), (वे) गुणों (के अन्दर) से विपरीत उत्पत्ति को चाहते हैं । 42. गुणों से उत्पन्न मद सुपुरुषों के हृदय में कभी प्रवेश नहीं करता है , इस तरह पूर्णतः अप्रदर्शित मद के कारण भी उनके गुण महान होते हैं। 43. तब तक ही ईर्ष्यारूपी अपवित्रता (रहती है), जब तक विवेक स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं होता है, (ठीक ही है) एक अोर पवित्र अग्नि द्वारा जलना हुआ, दूसरी ओर धूमा बिदा हुआ । 44. प्राश्चर्य ! गुणी (व्यक्ति) वैभव पर प्रारूढ (व्यक्तियों) के लिए (तथा) वैभवशाली (व्यक्ति) गुणों में महान् (व्यक्तियों) के लिए कुछ भी नहीं (हैं)। (वे) आपस में (एक दूसरे को) (इस तरह से) छोटा करते हैं, जैसे जो (लोग) पर्वतों के नीचे भाग पर (और) (उनके) शिखर पर (स्थित रहते हुए) (एक दूसरे को छोटा करते हैं)। 45. जैसे-जैसे इस समय गुण शोभायमान नहीं होंगे, (तथा) जैसे-जैसे (इस समय) दोष फलेंगे, वैसे-वैसे जगत भी अगुणों के आदर से गुणशून्य हो जायगा। 46. (सत्पुरुषों का) राजामों से भी क्या प्रयोजन (है)? (जिनके द्वारा) विवेक से सकल इच्छाएं छोड़ी गई हैं (तथा) (जो) आसक्ति रहित (है), (वे) सत्पुरुष विधाता के साथ भी (संघर्ष करने के लिए) धैर्य रूपी कटिबंध से बँधे हुए. होते हैं । लोकानुभूति .. 17 For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47. 48. 49. 50. 51. 52. 18 विष्णाणालोमोच्चि कुमईण विसारनं पचासेइ । कसणाण मणीणं पिव तेल-प्फुरणं सिनं चेन ॥ हिश्रश्र विग्रडत्तणेणं गरुप्राण णणिव्वति बुद्धीश्रो । घालंति महा - भवणेसु मंद - किरणच्चित्र पईवा ।। अच्चंत - विएएण वि गरुम्राण ण णिव्वडति संकप्पा | विज्जुज्जोभो बहलत्तणेण मोहेइ श्रच्छोइ ॥ · जे गेव्हंति सचित्र लच्छिण हु ते ण गारव द्वाणं । ते उण केवि सर्याचित्र दालिद्दं घेप्पए जेहि || मरणमहिणदमाणाण अप्पणच्चै कुणइ कुविप्रो कतो जइ विवरी एक्के पावंति ण तं प्रण्णे परनो व्व तीए दीसंति । इराण महग्घाणं च अंतरे णिवसइ पसंसा || · For Personal & Private Use Only मुक्कविवाण । सुपुरिसाण || बाकूपतिराज की Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47. ज्ञान का प्रकाश ही कुमतियों की निस्सारता को प्रकाशित करता है । जैसे काले मणियों के (कालेपन को) सफेद प्रकाश की सफेद दमक ही (प्रकाशित करती है)। 48. हृदय की विशालता के कारण महान् (व्यक्तियों) की सम्मतियां प्रकट नहीं होती हैं । (ठीक ही है) दीपक से (उत्पन्न) मंद-किरणें महाभवनों में ही फिरती हैं अर्थात् बाहर नहीं पाती हैं । 49. अत्यन्त प्रोजस्वी होने के कारण ही महान् (व्यक्तियों) के संकल्प संपन्न नहीं होते हैं । (ठीक ही है) पुष्कलता के कारण बिजली का प्रकाश प्रांखों को अस्त-व्यस्त कर देता है । 50. वास्तव में (यह) नहीं (है) (कि) जो स्वयं ही लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं, वे गौरव के योग्य नहीं हैं, किन्तु वे कुछ (ही) (महान लोग हैं) जिनके द्वारा स्वयं ही धन-हीनता ग्रहण की जाती है । 51. कुछ (लोग) उसको (प्रशंसा को) प्राप्त नहीं करते हैं, तथा कुछ (लोग) उसके (प्रशंसा के) परे देखे जाते हैं, प्रशंसा (तो) अति-सम्माननीय तथा जघन्य (मनुष्यों) के बीच में (स्थित व्यक्तियों की) होती है । 52. यमराज, यदि कुपित (है) (तो भी) मरण का स्वागत करते हुए (तथा) स्वयं के द्वारा ही वैभव का त्याग किए हुए सत्सुरुषों के लिए विपरीत करता है (अर्थात उनके जीवन को बढा देता है) लोकानुसूति 19 For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53. उवारणीभूप्र-जमा ण हु णवर ण पाविमा पहु - दु.णं । उवमरणं पि ण जाया गुण - गुरुणो काल - दोसेण ।। 54. विसइच्चेम सरहसं जेसु कि तेहिं खंडिग्रासेहिं । णिखमइ जेसु परिप्रोस णिभरो ताई गेहाइं ।। 55. उज्झइ उप्रार-भावं दक्खिण्णं करुणग्रं च प्रामुग्रह । काण वि समोसरंती छिप्पइ पुहवी वि पावेहिं ।। 56. अंतोच्चिन णिहुनं विहसिऊण प्रच्छंति विम्हिमा ताहे। इअर • सुलहं पि जाहे गरुमाण ण किपि संषडइ ।। 57. दावेंति सज्जणाणं इच्छा - गरुग्रं परिग्गहं गरुमा । ममण - विणिवेस - दिट्ठ महा - मणीणं व पाडबिंग ॥ 58. साहीण - सज्जणा विहु णीप्र - पसंगे रमंति काउरिसा। सा इर लोला जं काम • धारणं सुलह - रमणाण ॥ 20 बापतिराज की For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53. (यद्यपि) गुणों में महान् (व्यक्ति तो) मानव जाति के अन्दर उपकार करने वाले हुए (है) (फिर भी) आश्चर्य ! (वे) न केवल उच्च स्थान को नहीं पहुंचे हैं) (पर) काल-दोष से (उन्होंने) जीविका का साधन भी नहीं पाया है। 54. (मनुष्य) जिन (घरों) में उत्सुकता से प्रवेश करता है, (किन्तु) छिन्न प्राशापों से ही बाहर निकलता है, उन (घरों) से क्या लाभ ? जिन (घरों) में पूर्ण संतोष (होता है) वे (ही) वास्तव में) घर (हैं)। 55. (यदि कोई) किन्हीं के लिए भी उदार भाव को छोड़ता है, सरलता और दया को त्याग देता है, (तो) (ऐसे मनुष्यों से) दूर भागती हुई पृथ्वी भी पापों से स्पर्श करदी जाती है। 56. जघन्य (व्यक्ति) के लिए सुलभ भी (वस्तु) जब महान् (व्यक्ति) के लिए थोड़ी सी (भी) सिद्ध नहीं होती है. तब (वे) विस्मित हुए प्रांतरिक रूप से ही हंस कर चुपचाप बैठ जाते हैं । 57. महान् (लोग) प्राप्त किए गए उपहार को अभिलाषा से (प्रत्यधिक) बड़ा (उपहार) सज्जनों को दर्शाते हैं जैसे मोम-रचना के द्वारा देखा गया उत्तम मणियों का प्रतिबिंब (बड़ा दिखाई देता है)। 58. पाश्चर्य ! दुष्ट पुरुष नीच-संगति में ही प्रसन्न होते हैं, (यद्यपि) सज्जन (उनके) निकट (होते हैं)। वह निश्चय ही (उनकी) स्वेच्छाचारिता है कि रत्नों के सुलभ होने पर (भी) (उनके द्वारा) कांच ग्रहण (किया जाता है)।.. लोकानुभूति 21 For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 59. थाम-त्थाम-णिधेसिन - सिरीण गरुमाण कह णु दालिद्द। एक्का उण किविण - सिरी गमा.म मूलं च पम्हुसिनं ।। 60. किविणाण अण्ण - विसए दाण - गुणे महिसलाहमाणाण । णिम - चाए उच्छाहो ण णाम कह वा ण लज्जा वि ।। परमत्थ • पाविप्र - गुणा गरुग्रं पि हु पलहुमं व मण्णंति । तेण सिरीए विरोहो गुणेहिं णिक्कारणं ण उण ।। 62. भुममा • भंगाणत्ता वि सुवुरिसं जं ण तुरियमल्लिाइ । - तं मण्णे धावंती रहसेण सिरी परिक्खलइ ।। 63. णणु णासमणवलंवा एइच्चिन सा वि सुवुरिसाभावे । देव-वसा तेण सिरीए होइ णासंसिनो विरहो । 64. धम्म-पसूपा कह होउ भवई वेस-सज्जणा लच्छी । तामो मलच्छिमोच्चिम लच्छि-णिहा जा मणज्जेस । 22 बापतिराज को For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 59. स्थान-स्थान पर (महापुरुषों के द्वारा) स्थापित लक्ष्मी के कारण उन (महापुरुषों) के लिए निर्धनता कैसे संभव है ? किन्तु कृपण की लक्ष्मी अकेली (है), यदि (वह) नष्ट हई (तो) (उसका) मूल ही भूला दिया गया अर्थात् भूला दिया जायगा। 60 दूसरों के विषय में दान-गुण को सराहते हए (भी) कृपण के निज त्याग में उत्साह नहीं है, और आश्चर्थ (उसके) लज्जा भी कैसे नहीं है ? 61. चूंकि (मनुष्य) (जिनके द्वारा) वास्तविक गुण प्राप्त किए गए हैं, महान् भी (लक्ष्मी को) तुच्छ (वस्तु) की तरह मानते हैं, इसलिए लक्ष्मी का गुणों से विरोध वास्तव में बिना कारण नहीं है । 62. चूकि (सत्पुरुष के द्वारा) भौं सिकुड़न (उपेक्षा) से प्राज्ञा दी गई भी लक्ष्मी सत्पुरुष को शीघ्रता से आलिंगन नहीं करती है, मैं सोचता है उस कारण से ही (लक्ष्मी) (सत्पुरुषों की अोर) वेग से दौड़ती हुई (भी) स्खलित हो जाती है। . 63. सत्पुरुष के अभाव में वह (लक्ष्मी) भी, जो) निस्संदेह पालंबन रहित (हो जाती है), बिल्कुल नाश को प्राप्त होती है। (इस तरह से) देव के कारण उससे (सत्पुरुष से) लक्ष्मी का न चाहा हुआ विरह होता है । 64. पूज्य लक्ष्मी धर्म से उत्पन्न होती है)। (उसका) सज्जन से विरोध ___ कैसे होना चाहिए ? वे लक्ष्मी के सदृश अलक्ष्मियाँ ही हैं जो दुष्टों में (स्थित हैं)। लोकानुभूति For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65. 66. 67. 68. 69. 70. 24 जा विउला जाओ चिरं जा परिहोडज्जलानो लच्छीप्रो । आरधराणंचिन ताम्रो ण उणो अ इम्रराण || श्रवणेs देइ म गुणे दोसे णमेइ देह प्र पप्रासं । दीसइ एस विरुद्धो व्व को वि लच्छीए विष्णासो || प्रणोष्णं लच्छिगुणाण णूण पिसुणा गुणच्चि ण लच्छी । लच्छी महिलेइ गुणे लच्छि ण उणो गुणा जेण ॥ दुक्खाभावो ण सुहं ताई विण सुहाई जाई सोक्खाई । मोत्तूण सुहाइ सुहाइ जाइ ताइच्चिन सुहाई ।। सुहसंग गारवेच्चित्र हवंति दुःखाई दारुणश्रराई । प्रालोक्करिसेच्चिन च्छाया बहलत्तणमुवे || सह-संगो सुह-विणिवत्तिएक्क- चित्ताण प्रविरथं फुरइ । अंगुलिपिहिप्राण वो प्रवोच्छिष्णो व्व कण्णण ॥ For Personal & Private Use Only वाक्पतिराज की Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65. जो लक्ष्मियाँ विपुल ( हैं ), जो दीर्घ काल तक ( रहती है), जो बहुत प्रयोग से उज्ज्वल होती हैं, वे (लक्ष्मियाँ) श्राचरण धारण करने वालों के ही (होती हैं), किन्तु जघन्यों के निश्चय ही ( वह) नहीं (होती हैं) । ( उसके लिए) 66. (लक्ष्मी) (किसी के) कुछ गुणों को दूर हटाती है तथा दोषों को देती है, (किसी के) दोषों को) छुपाती है तथा ( उसको) प्रसिद्धि देती है, लक्ष्मी की यह रचना विपरीत तुल्य देखी जाती है । 67. एक दूसरे के साथ (तुलना करने पर) लक्ष्मी (और) गुणों में से पूरी संभावना है कि गुण ही दुष्ट हैं, लक्ष्मी नहीं, क्योंकि लक्ष्मी गुणों को ग्रहण करती है, किन्तु गुण लक्ष्मी को नहीं । 68. दुःख का अभाव सुख नहीं (है), जो (सांसारिक) सुख ( हैं ), वे भी सुख नहीं ( हैं ), ( सांसारिक) सुखों को छोड़कर जो सुख ( हैं ) वे ही सुख ( हैं ) । 69. सुख की प्रासक्ति की गुरुता होने पर ही दुःख अधिक उग्र होते हैं ( लगते हैं ), ( ठीक ही है) आलोक के अत्यधिक होने पर ही छाया स्थूलता को प्राप्त करती है । 70. सुख से निवृत्ति ( लिए हुए) कुछ चित्तों में सुख की प्रासक्ति लगातार स्फुरित होती है, जैसे ऊँगलियों से ढके हुए कानों में शब्द लगातार (सुनाई देते हैं) । लोकानुभूति For Personal & Private Use Only 25 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 71. दूमिज्जंताई वि सुहमुवेंति गहाण णिप्रम • दुक्खेहिं । रस - बंधेहिं कईण व विइण्ण - करुणाई हिमपाई। अण्णण्णाई उवेंता संसार - वहम्मि णिरवसा.म्मि । मण्णंति धीर - हिमपा वसइ • टाणाई व कुलाई। 73. ससिएहिचिन लोप्रो दुक्खं लहुएइ दुक्ख - जणिएहि । प्रायास - कएहिं करो प्रायासं सीपरेहि व ॥ 74. पहरिस - मिसैण बाहो ज बंधु • समागमे समुत्तरइ । वोच्छेन - कापराइं तं गूण गलंति हिमपाइं ।। 75. मूढ सिढिलत्तणं ते सणेह • वासेण कह णु बद्धस्स । बाद गाढपरामइ जो इर मोत तणंतस्स ।। 76. कालवैसा णासमुवागमस्स सप्पुरिस - जस - सरीरस्स । अट्टि - लवाति कहिं पि विरल - विरला गुगुंगारा ॥ पाकृपतिराज की For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 71. निज दुःखों से सताए जाते हुए भी महान् (व्यक्तियों) के हृदय सुख प्राप्त करते हैं, जैसे शोक (भाव) को अर्पित (महान) कवियों के (हृदय) करुण रस की संरचनाओं द्वारा (सुख प्राप्त करते हैं)। 72. अन्त रहित संसार-पथ में और और कुटुम्बों को प्राप्त करती हुई विवेकी प्रात्माएं (उन कुटुम्बों को) (किन्हीं) स्थानों में ठहरने की तरह मानती हैं। 73. दुःख से उत्पन्न सांस के द्वारा ही मनुष्य (मानो) दुःख को हलका करता है, जैसे प्रयत्न से उत्पन्न वायु-प्रेरित छीटो के द्वारा हाथी थकान को (हलकी करता है)। 74. चूकि बंधुनों से सम्बन्ध होने पर आंसू हर्ष के बहाने नीचे टपकता है, तो (इस बात की) पूरी संभावना है कि (सम्बन्ध के) विनाश से भयभीत हृदय पसीजते हैं। 75. हे मूढ ! राग के बन्धन से बंधे हुए तुम्हारे लिए (उनसे) छूटना कैसे संभव (है) ? चूकि छोड़ने के लिए (प्रयास) करते हुए (तुम्हारे लिए) जो (बंधन) बहुत ज्यादा हृढतर हो जाते हैं । 76. काल के कारण नाश को प्राप्त सत्पुरुष रूपी यश-शरीर की हड्डियाँ प्ररूपमात्रा में हो जाती है, (इसलिए) किसी जगह (भी) (सत्पुरुषों के विषय में) गुणों के उद्गार थोड़े-थोड़े (हो जाते हैं)। लोकानुभूति 7 For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 77. को तेसु दुग्गाणं गुणेस अण्णो कमारो होइ । अप्पा वि णाम णिव्वेअ - विमुहरं जेसु दावेइ । 78. हिम कहिं पि णिसम्मस कित्तिप्रमासाहो किलिम्मिहिसि। दीणो वि वरं एक्कस्स ण उण सपलाए पुवीए । 79. अच्छउ ता विहलुद्धरणयारवं कत्थ तं अगरुएसु। अप्पाणअस्स वि पियं इअरा काउं ण पारंति ।। 80. भूरि-गुणा विरलच्चिन एक्क-गुणो वि हु जणो ण सव्वस्थ । णिद्दोसाण वि भद्द पसंसिमो विरल - दोसं पि । 81. थोवागंअं - दीसच्चिन ववहार-वहम्मि होंति सप्पुरिसा । इहरा णीसामण्णेहिं तेहिं कह संगनं होइ ।। भापतिराज की For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 77. (दुगुणी) व्यक्ति ही जिन दुर्गुणों में सचमुच घृणा (और) विमुखता दिखलाता है, (ऐसे) दुर्दशाग्रस्त (व्यक्तियों के) उन (दुर्गुणों) में दूसरा कोन (है) (जिसके द्वारा) (उनका) प्रादर किया हुआ होता है ? 78. हे हृदय ! किसी भी जगह पर शान्ति के निकट हो । कितने समय तक प्राशा से ध्वस्त हुआ (तू) खिन्न होगा ? (सच है) (स्वयं) किसी एक का ही दुःखी (होना) श्रेष्ठतर है, किन्तु सकल पृथ्वी का (दुःखी) होना) नहीं। 79. (जब) सामान्य (व्यक्ति) स्वयं के भी सुख को सम्पन्न करने के लिए समर्थ नहीं हैं तो दुःखियों के उद्धार करने का विचार सामान्य (व्यक्तियों) द्वारा कैसे (संभव है)? इसलिए (सामान्य व्यक्ति) चुप चाप बैठा रहे। 80. वास्तव में (वे मनुष्य जिनमें) प्रचुर विशिष्टताएँ (हैं), अल्प (हैं), आश्चर्य ! (वह) मनुष्य (जिसमें) एक भी विशिष्टता (है) (वह) (ही) सब जगह पर नहीं (है) (और) निर्दोष (मनुष्यों) का (मिलना) भी सौभाग्य (है), हम (तो) अल्प दोष को (लिए हुए मनुष्य की) भी प्रशंसा करते हैं। 81. (सत्पुरुषों में) उत्पन्न (किसी) छोटे दोष के कारण ही सत्पुरुष (अन्य मनुष्यों के साथ) सम्बन्ध रखने में (समर्थ' होते हैं, अन्यथा उन प्रसाधारण (व्यक्तियों) के साथ सम्बन्ध कैसे (संभव) होगा ? लोकानुभूति For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82. उक्करिसोच्चेमण जाण तारण को वा गुणाण गुरण-भावा । सो वा पर - सुचरित्र - लंघणेण ण गुणत्तणं. तह वि ।। 83. णवरं दोसा तेच्चे जे मस्स वि जणस्स सुवंति । णज्जति जिअंतस्स वि जे गवर गुणा वि तेच्चे ।। 84. ववहारेच्चिन छायं णिएह लोअस्स किं व हिपएण । तउग्गमो मणीण वि जो बाहिं सो ण भगम्मि ।। 85. सम-गुण - दोसा दोसेक्क • दंसिणो संति दोस • गुण-वामा । गुण • दोस - वेइणो णस्थि जे उ गेण्हंति गुणमेत्तं । 86. सच्चविपासप्रल • गुणं पि सज्जणं सुवुरिसा पसंसति । परिबंध • शूमिमद को वा रमणं । विमारेइ । 30 भापतिराज को For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82. जिन गुणों के कारण (गुणी मनुष्यों का) उत्कर्ष ही नहीं (है), उन (गुणों) से कभी क्या परिणाम घटित होना (है) ? संभवतः (उन गुणी मनुष्यों का) वह (उत्कर्ष) दूसरे गुणियों के द्वारा (उन गुणी मनुष्यों से भी) आगे बढ़ने के कारण नहीं (हुआ है), तो भी (उन गुणी मनुष्यों में) गुणपना (तो है ही) । 83. वे ही केवल दोष हैं जो मरे हुए मनुष्य के विषय में भी सुने जाते हैं, और वे ही केवल गुण हैं जो जीते हुए (मनुष्यों) के विषय में ही कहे जाते हैं। 84. व्यवहार से ही मनुष्य के स्वाभाविक रंग-रूप को देखो, (उसके) हृदय से क्या ? मणियों के भी प्रकाश का उद्भव जो बाहर की मोर से (होता है), वह (उनके) टूटने पर (भीतर से) नहीं (होता है )। 85. (कुछ के लिए) गुण और दोष (दोनों) समान होते हैं), (छ) केवल मात्र दोषों को देखने वाले (हैं), (कुछ) दोष और गुण (दोनों) के विरुद्व होते हैं, और (कोई भी) गुण और दोष के (ऐसे) जानने वाले नहीं हैं जो गुण मात्र को ही ग्रहण करते हैं। 86. सत्पुरुष सज्जन की प्रशंसा करते हैं, यद्यपि (उनके द्वारा) (उसका) एक (ही) गुण देखा गया (है) । (ठीक ही है) कौन (व्यक्ति) रत्न को (जो) प्रावरण से प्राधा छुपाया हुआ है, कभी टुकड़े-टुकड़े करता है ? लोकानुभूति 31 For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87. सोहइ प्रदोस • भावो गुणो ब्व जइ होइ मच्छरत्तिभ्णो विहवेसु व गुणेसु वि दुमेइ ठिो अहंकारो। 88. जेण गुणग्यविप्राण वि ण गारवं धरण - लवेण रहिमाण तेण विहवाण णमिमो तेणंचित्र होउ विहवेहि । 89. दविणोवपार • तुच्छा वि सज्जणा एत्तिएण धीरेंति। जं ते रिणम - गुण - लेसेहिं ‘देंति काणं पि परिप्रोसं । .. 90. दुर्मति सज्जणाणं पम्हसिन - दसाण तोस - कालम्मि दाणापर - संभम - दि8 - पास - सुण्णाई विलिपाई। 91. सइ जाढर - चिंतामड्ढि व हिमनं महो मुह जाण। उधर - चित्ता कह णाम होंतु ते सुण्ण • ववसाया॥ 32 पाकपतिराज की For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87. यदि (मनुष्य) ईर्ष्या से मुक्त होता है, (तो) (उसका ) दोष रहित स्वभाव तथा (कोई भी) गुरण शोभता है, जैसे संपत्ति के कारण हुआ महंकार पीड़ा देता है, ( वैसे ही ) गुणों के कारण (हुम्रा अहंकार) भी ( पीड़ा देता है) । 88. चूँकि वैभव के करण से रहित, यद्यपि गुणों से भरे हुए (व्यक्तियों) का सम्मान नहीं (है), इसलिए हम वैभव को नमस्कार करते हैं, (और) (इसीलिए ) (व्यक्ति) उस वैभव से ही (दूर) होवे । 89. यद्यपि सज्जन ( अन्य की) संपत्ति के द्वारा ( किए गए ) उपकार से (स्वयं) तुच्छ (अनुभव करते हैं), (तथापि ) इतने से ही धीरज धरते है कि वे निज-गुणों की अल्पमात्रा के द्वारा ही किसी के लिए (तो) संतोष देते हैं । 90. सज्जनों के द्वारा भूली हुई ( स्वय की निर्धनता की ) अवस्था के कारण प्रसन्नता के समय में स्नेह से भेंट देने की उत्सुकुता होने पर श्रास-पास देखा गया खालीपन लज्जा ( उत्पन्न करता है) । (यह बात ) (सज्जनों को) दुःखी करती है । 91. जिनका मुख नीचा है तथा हृदय सदा पेट से संबंध रखने वाली चिंता से खींचा हुआ है, ( उनके लिए ) ऊँचे उद्देश्य कैसे संभव हों ? ( वास्तव में ) वे (लोग) (उच्च) प्रयत्न से विहीन ( होते हैं) । लोकानुभूति For Personal & Private Use Only 33 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92. लोए अमुणिम - सारत्तणेण खणमेत्तमुश्विग्रंताण । णिग्रम - विधेय-विमा गरूमाण गुणा पट्टति ।। 93. गेण्हउ विहवं प्रवणेउ णाम लीलावहे वय-विलासे । दूमेइ कह णु देवो गुण - परिउट्ठाइ हिमपाई। 94. अघडिम - परावलंबा जह, जह गरुअत्तणेण विहडं ति । तह तह गरुपाण हवंति बद्ध-मूलामो कित्तीमो ।। 95. प्रसलाहणे खलुच्चिन अलिम - पसंसाए दुज्जणो विउण। अपवत्त - गुणे सुप्रणो दुहा वि पिसुणत्तण लहइ ॥ 96. तण्हा अखंडिग्रच्चिन विहवे अच्चुण्णए वि लहिऊण। सेलं पि समारहिऊण किं व गमणस्स प्रारुढं ॥ 34 वाक्पपिरान की For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92. (मनुष्यों के द्वारा) (महापुरुषों के गुणों के) नहीं जाने गए सार के कारण क्षण भर के लिए खिन्न होते हुए महापुरुषों के द्वारा निज विवेक से (जो) गुण लोक में स्थापित किए गए हैं) (उनके विकास के लिए ही) (वे) चलते जाते हैं । 93. देव यद्यपि संपत्ति को छीन ले (तथा) प्रानन्द के वाहक खर्च की मौजों को लेले, तो भी वह गुणों से तुष्ट हृदयों को पीड़ा कैसे दे सकता है ? 94. महापुरुषों के द्वारा दूसरे (व्यक्ति) सहारे नहीं बनाए गए हैं, जैसे जैसे (वे) (मनुष्यों द्वारा) (किए गए) सम्मान से अलग होते हैं, वैसे-वैसे (उनकी) कीति (गहरी) जड़ पकड़े हुए होती है । 95. (किसी के द्वारा) अयोग्य (व्यक्ति) की प्रशंसा (करने) के कारण वह (अयोग्य) दुर्जन व्यक्ति (अपनी) झूठी प्रशंसा से सचमुच ही दुगनी दुष्टता को प्राप्त करता है, (इसी प्रकार) (किसी के द्वारा) शुभ कार्य में संलग्न न होने पर (भी) (उसकी) झूठी प्रशंसा के द्वारा सज्जन भी दो प्रकार से (अर्थात् झूठ बोलने और चापलूसी करने से) दुष्टता को (प्राप्त करता है)। 96. प्राश्चर्य ! (संपत्ति की) बहुत ऊंची (स्थितियों) को प्राप्त करके संपत्ति में भी तृष्णा नहीं मिटाई गई (है), तो पर्वत पर चढ कर क्या गगन पर चढना है ? लोकानुभूति 35 For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 97. जम्मि प्रविण - हिमप्रत्तणेण ते गारवं वलग्गंति । तं विसममरगुप्पेतो गरुप्राण' विही खलो होइ ॥ 98. रमइ विहवी विसेसे थिइ मेत्तं थोत्र - वित्थरो महइ | मग्गइ सरीरमधणो रोई कत्थो || जीएच्चिन 99. विरसाअंता बहलत्तणेण हिग्रए खलति थो विहवत्तणेणं सुहंभरप्पच्चि 36 · 100. विरसम्मि वि पडिलग्गंण तरिज्जइ कह वि जं णिवत्ते ेउं । हिमस्स तस्स तरलत्तणम्मि मोहो इह जणस्स || परिमोहा | सुति ॥ For Personal & Private Use Only वाक्पतिराज की Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 97 अखिन्न हृदयता से जिस (कठिन स्थिति) को (महापुरुष) ग्रहण करते हैं, (उमसे) वे महत्व को प्राप्त करते हैं, (किन्तु) उस कठिन स्थिति को महापुरुषों से दूर नहीं हटाता हुआ विधि दुष्ट होता है । 98 धनाड्य प्रचुर (भोगों) में क्रीडा करता है, थोड़ा विस्तार युक्त (व्यक्ति) स्थिरता मात्र को चाहता है, निर्धन (स्वस्थ) देह को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है (तथा) रोगी जीने में ही इच्छुक (होता है।। 99. (धनाड्य के लिए) (जो) भोग-(वस्तुएँ) (उनकी) अत्यधिकतो के कारण निरस (स्थिति) को प्राप्त करती हुई हैं), (वे) हृदय में डगमगा जाती हैं, (किन्तु) थोड़ी वैभवता के कारण व्यक्ति सुखी ही (होते हैं)। (इस बात पर सभी) ध्यान देते हैं। 100. नीरस (वस्तु) में भी लगा हुप्रा जो (हृदय) (उससे) हट जाने के लिए कैसे भी समर्थ नहीं किया जाता है, उस हृदय की इस चंचलता में मनुष्य का मिथ्या विश्वास (ही) (प्रतीत होता है)। लोकानुभूति For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत-सूची पनि वि विधिक ka) -अव्यय (इसका अर्थ- भूक -भूतकालिक कृदन्त. ___ लगाकर लिखा गया है) व -वर्तमानकाल । -अकर्मक क्रिया -वर्तमान कृदन्त --अनियमित -विशेषण प्राज्ञा -आज्ञा विधि -विधि कर्म -कर्मवाच्य -विधि कृदन्त -सर्वनाम ___ संकृ -सम्बन्ध कृदन्त (क्रिविन)-क्रिया विशेषण अव्यय - सकर्मक क्रिया (इसका अर्थ = लगाकर लिखा गया है) . - सर्वनाम विशेषण -स्त्रीलिंग हे -हेत्वर्थ कृदन्त -तुलनात्मक विशेषण () -इस प्रकार के कोष्ट -पुल्लिग मूल शब्द रक्खा गया -प्रेरणार्थक क्रिया [( ) + ( )+ ( ) . भकू -भविष्य कृदन्त इस प्रकार के कोष्टक के अन्दर -भविष्यत्काल चिन्ह किन्हीं शब्दों में संधि काई -भाववाच्य है। यहाँ अन्दर के कोष्टकं भू -भूतकाल गाथा के शब्द ही रख दिए गए वाक्पतिराज For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) - ( )-( ) ....] 1/1-प्रथमा/एकवचन कार के कोष्टक के अन्दर '-' 1/2-प्रथमा/बहुवचन समास का द्योतक है। 2/1-द्वितीया/एकवचन 2/2-द्वितीया/बहुवचन कोष्टक के बाहर केवल संख्या 3/1-तृतीया/एकवचन 1/1, 2/1.."यादि) ही लिखी हाँ उस कोष्टक के अन्दर का 3/2-तृतीया/बहुवचन 'संज्ञा' है। 4/1–चतुर्थी/एकवचन 4/2–चतुर्थी बहुवचन हाँ कर्मवाच्य, कृदन्त प्रादि प्राकृत 5/1-पंचमी/एकवचन नयमानुसार नहीं बने हैं वहां 5/2-पंचमी/बहुवचन क के बाहर 'अनि' भी लिखा 6/1--षष्ठी/एकवचन 6/2-षष्ठी/बहु वचन 7/1-सप्तमी/एकवचन प्रक या सक-उत्तम पुरुष/ 7/2–सप्तमी/बहुवचन एकवचन 8/1–संबोधन/एकवचन अक या सक-उत्तम पुरुष/ 8/2-संबोधन/बहुवचन बहुवचन प्रक या सक-मध्यम पुरुष/ - एक वचन अक या · सक-मध्यम पुरुष। - बहुवचन प्रक या सक-अन्य पुरुष/ एकवचन या सक-अन्य पुरुष/ . . बहुवचन अनुभूति 39 • For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण " 1 इह (अ) = इस लोक में ते (त) 1/2 सवि ज ंति (ज) व 3/2 अव इणी (इ) 1/2 जग्रमिणमो [ ( ज ) + (इमो ) ] जन (ज) 1/ इमो (इम) 1/1 सवि जाण (ज) 6/1 सवि. सग्रल - परिणाम [ ( सग्रल वि - (परिणाम) 1 / 1 ] वाश्रासु (वाना) 7 / 2 ठि (ठि) भूकृ 1 / 1 श्र etes ( दीes) व कर्म 3 / 1 सक अनि श्रामोग्र-धरणं [ (ग्रामो ) - (घण 1 / 1 वि] व (प्र) = या तुच्छं (तुच्छ ) 1 / 1 वि व (अ) = या 2. णिश्रश्राए (मिश्र णिश्रश्रा) 3 / 1 वि → चिचश्र (प्र) = ही वाला (वाना) 3 / 1 प्रत्तणो (प्रत्तारण) 6/1 गारवं (गारव) 2 / 1 णिवेसता (रिवेस वकॄ 1/2 जे (ज) 1/2 सवि ए ंति (ए) व 3 / 2 सक पसंसं (पसंसा) 2/ चित्र ( अ ) - निश्चय ही जन ति (ज) व 3 / 2 अक इह (प्र) = झ लोक में ते (त) 1/2 सवि महा-कइणो [ (महा) वि- (इ) 1/2 | 3. दोग्गच्चम्मि (दोग्गच्च) 7 / 1 वि ( अ ) = भी सोक्खाई (सोक्ख) 1/2 ता (त) 6 / 2 संविवि (विहव) 7 / 1 होंति (हो) व 3 / 2 अक दुक्खाई (दुक्ख 1/2 कव्व - परमत्थ - रसिश्राई [ ( कव्व) - (परमत्थ) - (रसि) 1/2 वि ] जार (ज) 6 / 1 सवि जाति (जान) व 3 / 2 प्रक हिश्रश्राइं (हिम) 1/ 4. सोहेइ ( सोह) व 3 / 1 अक सुहावेइ (सुहाव) व 3 / 1 सक प्र ( अ ) = तथ उवहुज्जतो (उवहुज्जतो) कर्म वकृ 1 / 1 अनि लवो (लव) 1 / 1 वि (प्र. भी लच्छीए ( लच्छी) 6/1 देवी (देवी) 1 / 1 सरसई ( सरस्सई) 1 / 1 उप (अ) - किन्तु श्रसमग्गा ( अ - समग्ग प्र - समग्गा ) 1 / 1 वि किंपि (प्र) - किंचित् विरणडेइ ( विणड) व 3 / 1 सक. = 5 लग्गिहि (लग्ग ) भवि 3 / 1 सकण (प्र) - नहीं वा ( अ ) - अथवा सुमसे (ए) 2/2 वर्याणिज्जं ( वयरिगज्ज) 1 / 1 दुज्जरणेहिं (दुज्जरण) 3/2 वाक्पतिराज की 40 For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भतं ( भण्ांत) कर्म वकू 1 / 1 प्रनि ताण (त) 6 / 2 सवि पुण (प्र) किन्तु तं (त) 1 / 1 सुग्रणाववान-वोसेण ( ( सुप्ररण) + (प्रववान) + (दोसेण)] [(सुप्ररण) - (श्रववान) - (दोस) 3 / 1] सघडइ (संघड) व 3 / 1 श्रक 6 पर - गुण - परिहार - परंपराए [ ( पर ) - गुण) - (परिहार ) - ( परंपरा) 3 / 1] तह (अ) = उसी प्रकार ते (त) 1/2 सवि गुणष्णुश्रा (गुणण्णु) स्वार्थिक 'प्र' 1/2 वि जाना (जा) भूकृ 1 / 2 तेहि (त) 3 / 2 सवि चित्र प्र) ही जह (प्र) - जिस प्रकार गुणहँ (गुण) 3 /2 गुणिनो (गुणि) 1/2 वि परं (प्र) = प्रत्यन्त पिसुणा ( पिसुण) 1 / 2 7. जं ( अ ) = चूँकि णिम्मला (रिगम्मल) 1/2 वि वि ( अ ) - भी खिज्जंति ( खिज्ज व 3 / 2 अक हंत श्र) = खेद विमलेहिं (विमल ) 3 / 2 वि सज्ज - गगुणेहि [ ( सज्जा) - (गुण) 3/2] तं (प्र) = इसलिए सरिसं ( सरिस ) 1 / 1 ससि-र-कारणाए ( (ससि) - (र) - (काररणा ) 6 / 1] करि - दंतविप्रणाए [ ( करि ) - (दंत) - (विप्ररणा ) 3 / 1] = - 8. जारण (ज) 4 / 1 स श्रसमेहिं ( प्र सम) 3 / 2 वि विहिना (विहिना) भूकृ 1/1 अनि जान (जान) व 3 / 1 क रिंगदा ( रिंगदा ) 1 / 1समा (समा) 1/1 वि सलाहा (सलाहा ) 1 / 1 वि (प्र भी तेहिं (त) 3 / 2 सविण (प्र) - नहीं तान (त) 6/2 मण्णे ( मरण) 7/1 किलामेइ (किलाम) व 3 / 1 सक = a समा - के समान (सम→ समा) d कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण :3-135 ) 9. बहुओ (बहुध ) 1 / 1 वि सामण्ण - महसणेण [ ( सामण्ण ) - (मइत्तण) 3 / 1] ताणं (त) 6 / 1 सवि परिग्गहे (परिग्गह) 7/1 लोप्रो ( लोन ) 1 / 1 कामं (प्र) = प्रसन्नतापूर्वक गया ( ग ) भूकु 1 / 2 अनि पसिद्धि लोकानुभूति For Personal & Private Use Only 41 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (पसिद्धि) 2/1 सामण्ण-कई [(सामण्ण) वि. (कइ) 1/2] अयो "(प्र) = इसलिए च्चेन (प्र)- ही 10. हरइ (हर) व 3/1 सक प्रग (अणु) 1/1 वि वि (प्र)= भी पर-गुणो [(पर) वि-(गुण) 1/1] गहमम्मि (गरुप) 7/1 वि (प्र) = भी णिप्र-गुणे [(णिय) वि-(गुण) 7/1] ण (अ)- नहीं संतोसो (संतोस) 1/1 सीलस्स (सील) 6/1 विवेप्रस्स (विवेप्र) 6/। अ (अ)=और सारमिणं [(सारं) + (इणं)] सारं (सार) 1/1 इगं (इम) 1/1 सवि एत्तिनं (एत्तिप्र) 1/1 वि चेन (प्र) ही इअरे (इअर) 7/1 वि वि (अ)= भी फुरंति (फुर) व 3/2 अक गुणा (गुण) 1/2 गुरूण (गुरु) 6/2 पढ़मं (अ) सर्व प्रथम कउत्तमासंगा [(क)+(उत्तम)+(संगा)], [(क) भूक अनि - (उत्तम) वि - (असंग) 1/2] अग्गे (अ) = पहले सेलग्ग-गमा [(सेल+(अग्ग)+ (गमा)] [(सेल)-(अग्ग)-(ग) भूकृ अनि ।/2] इंदु - मऊहा [(इंदु)-(मऊह) 1/2] इव (अ)- जैसे महीए (मही) 7/1 11. 12. रिणवाडताण (रिणव्वड) प्रेरक वक 4/2 सिवं (सिव) 2/1 सप्रलं (सअल) 1/1 वि चिन (अ) = ही सिवधरं (सिवपर)1/1 तुवि तहा (अ) = इस प्रकार तारण (त) 4/2 स णिव्वडइ (रिणव्वड व 3/1 अक कि पि (प्र; कुछ जह (अ)-जिससे ते (त) 1/2 स वि (अ) - भी अप्पणा (अ) स्वयं विम्हसमवेति [(विम्हन)+(उति)] विम्हश्र (विम्हप्र) 2/1 उति (उवे) व 3/2 सक पासम्मि (पास) 7/1 अहंकारी (अहंकारी) 1/1 होहिइ (हो) भवि 3/1 अक कह (अ)-कैसे वा (अ)संभावना गुणारण (गुण) 6/2 विवरुक्खे (विवरुक्ख) 7/1 गव्वं (गव्व) 2/1 ण (त) 1/1 स गुरिणगन-मनो [(गुणि)-(गन) भूक अति-(मप्र) 1/1] गुणत्थमिच्छंति [(गुण) + (त्)+ (इच्छंति)] गुणत्थं (गुणत्थ) 2/1 वि इच्छंति 13. वाक्पतिराज को For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 15. (इच्छ) व 3 / 2 सक गुरण कामा [ ( गुण) - (काम) 1 / 2 वि ] मोह - सलाहाहि [ ( मोह) वि - ( सलाहा) 3 / 2 ] तहा (प्र) = इस प्रकार पहुणो (पहु) 1 / 2 पिसुह (पिसुरा) 3 / 2 वेलविज्जंति (वेलव) व कर्म 3/2 सक जह (प्र) = कि णिव्वडिएस (रिगव्वड) भूकृ 7 / 2 वि (अ) - ही श्रि- गुणेपु ( प्रि) वि - ( गुण) 7/2] ते (त) 2/2 स किपि ( अ ) - बहुत शो तक चितेंति (चित) व 3 / 2 सक सुलहं (तुलह) 1/1 वि हि ( अ ) = ही गुणाहाणं ( ( गुण) + ( श्राहाणं ] [ ( गुण) - ( प्राहारण) 1 / 1 ] सगुणाहाराण [ ( सगुण) + ( श्राहाराणा ) | | ( सगुण ) वि - ( प्राहार ) ] 4 / 2 गणु (अ) = अवश्य दान (दि) 4 / 2 प्रोसिश्रव्व - मग्गा [ ( स ) विधि कृ(मग्ग) 1 / 2 ] कत्तो (प्र) = कहाँ से बि (प्र) = संभावना गुणा (गुण) 1/2 दरिद्दाण ( दरिद्द) 4 / 2 वि 16. तं (त) 1 / 1 सवि खलु (प्र) = वास्तव में, सिरीए (सिरी) 6 / 1 रहस्सं (रस्स) 1 / 1 जं ( अ ) = कि सुचरित्र - मग्गरशेवक - हिश्रश्रो [ ( सुचरिश्र) + (मग्गग्) + (एकक) + (हिनो)] [ ( सुचरित्र) वि - (मग्गरण ) - (एक्क) वि - (हि) 1 / 1 ] वि (प्र) = यद्यपि अप्पाणमोसरांत [ ( अप्पा ) + ( प्रोस रंतं) अप्पारण ( अप्पारण ) 2 / 1 श्रोसरत ( श्रोसर) वकृ 2/1 * (गुण) 3 / 2 लोश्रो ( लोन ) 1 / 1 ण (म) = नहीं लक्खेइ ( लक्ख) व 3 / 1 सक * कभी कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-136) 17. लोएहि ( लोन ) 3 / 2 अगहिश्रं (प्र-गह ) भूकृ 1 / 1 चित्र ( प्र ) = बिल्कुल सीलम विहव- द्वियं [ (सील) + (प्रविवट्टिय ) ] सीलं (सील) 1 / 1 लोकानुभूति For Personal & Private Use Only 43 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रविहव-द्विअं [(अविहव)-(द्विअ) 1/1 वि] पसणं (पसष्ण) 1/1 वि पि (प्र)= भी सोसमुवेइ [(सोस) + (उवेइ)] सोसं (सोस) 2/1उवेइ (उवे) व 3/1 सक तहिं (अ)-उस अवस्था में चित्र (प्र)- ही कुसमं (कुसुम) 1/1 व (प्र) = की तरह. फलग्ग-पडिलग्गं [(फल)+ (अग्ग) + (पडिलग्ग)] [(फल)-(अग्ग) -(पडिलग्ग) 1/1 वि] 18. णिच्चं (प) = सदैव धण-दार-रहस्स-रक्खणे [(घण)-(दार). (रहस्स)- (रक्खण)7/1] संकिणो (संकि)1/2 वि वि (प्र) = यद्यपि प्रच्छरिनं (प्रच्छरिम) 1/1 पासण्ण-गोत्र-वग्गा [(मासण्ण)(णीप) वि-(वग्ग) 1/2] जं (अ) = कि तहवि (अ)- तथापि गराहिवा (णराहिव) 1/2 होंति (हो) व 3/2 19. पेच्छह (पेच्छ) विधि 2/2 सक विवरीममिमं [(विवरीअं+ (इम)] विवरीअं (विवरीप्र) 2/1 वि इमं (इम) 2/1 सवि बहुमा (बहुमा) 1/1 वि मइरा (म इरा) 1/1 मएइ (मए) व 3/1 सक रग (प्र) = नहीं हु (प्र) = किन्तु थोवा (थोवा) 1/1 वि लच्छी (लच्छी ) 1/1 उण (प्र)- पर थोवा (थोवा) 1/1 वि जह (म) जैसी तहा (प्र)-वैसी इर (म)= निस्संदेह बहूमा (बहूमा) 1/1 वि. 20 जे (ज) 1/2 स रिणम्वडिन-गुणा [(णिव्वडिप्र) वि-(गुण) 1/2] वि (अ)- भी ह (प्र)-प्राश्चर्य सिरि (सिरी) 2/1 मना (ग) भूक 1/2 अनि ते (त) 1/2 स वि (प्र)=ही रिणग्गुणा (रिणग्गुण) 1/2 वि होंति (हो) व 3/2 अक उण (प्र) = फिर गुणाण' (गुण) 6/2 दूरे (क्रिविन)= दूर अगुण (प्रगुरण) 1/2 वि मागे संयुक्त प्रक्षर (च्चिम) के आने से दीर्घ स्वर हृस्व स्वर हुमा है । च्चिन (प्र) = ही जे (ज) 1/2स लच्छि (लच्छी) 2/1 * दूरवाची शब्दों के साथ पंचमी अथवा षष्ठी होती है । वाक्पतिराज की For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22. 21. एक्के (एक्क) 1/2 सवि लहुप्रसहावा [(लहुअ) वि- (सहाव) 1/2] गुणेहिं (गुण) 3/2 लहिउं* (लह) हेकृ महंति (मह) व 3/2 सक धरण -रिदि [ (ध ग)-(रिद्धि) 2/1 ] अण्णे (अण्ण) 1/2 सवि बिसुद्ध-चरित्रा [(विसुद्ध) वि—(चरित्र) 1/2] विहवाहि (विहव) 3/2 गुणे (गुण) 2/2 विमग्गंति (विमग्ग) व 3/2 सक * 'इच्छा' अर्थ की क्रियामों के साथ हेत्वर्थ कृदन्त का प्रयोग होता है। परिवार-दुज्जणांइ [(परिवार)—(दुज्जण) 1/2 वि] पहु-पिसुणाई [(पहु)-(पिसुण) 1/2 वि] पि (प्र) = तथा होंति (हो) व 3/2 प्रक गेहाई (गेह। 1/2 उहा-खलाइं [(उहप्र) वि-(खल) 1/2 वि] तह (प्र) = इस प्रकार च्चिन (प्र) = ही कमेण (क्रिविम)= क्रम से विसमाई (विसम) 1/2 वि । मण्णेत्या (मण्ण) व 2/2 सक । * यहाँ विधि पर्थ में वर्तमान का प्रयोग है। 23. मूढे (मूढ) 7/1 जगम्मि (जण) 7/1 अ-मुगिन-गुण-सार विवेप्र. वइअरुग्विग्गा [ (अ-मुणि+(गुण)+ (सार)+ (विवेन)+(वइअर)+(उन्विग्गा) ] [ ( अ-मुरिण) भूक-(गुण) (सार)(विवेप्र)-(वइमर)-(उब्विग्ग)- 1/2 वि] कि (कि) 2/1 सवि अण्णं (अण्ण) 2/1 वि सप्पुरिसा (सप्पुरिस 1/2 गामानो (गाम) 5/1 वर्ग (वण) 2/1 पवज्जति (पवज्ज) व 3/2 सक कभी-कभी सप्तमी विभक्ति का प्रयोग तृतीया के स्थान पर किया जाता है । [हेम प्राकृत व्याकरण : 3-135] 24. दुक्खेहिं (दुक्ख) 3/2 दोहि (दो) 3/2 सुप्रणा (सुप्रण) 1/2 अहिऊरिज्जति (महिऊर) व कर्म 3/2 सक विअसिम (क्रिविम) लोकानुभूति 45 For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25. प्रतिदिन चेन (प्र) = ही सुपुरिस-काले [(सुपुरिस) - (काल) 7/1] म (अ)-एक अोर ग (प्र) = नहीं जं. (अ)-कि ज (अ)= कि जापा (जा) भूक 1/2 गीअ-काले [(णीम)-(काल) 7/1] प्र (प्र) = दूसरी ओर । समईण (सुमइ) 4/2 वि सुचरित्राण (सुचरित्र) 4/2 वि अ (अ)= तथा देंता (दा) वकृ 1/2 पालोअणं (पालोअण) 2/1 पसंगं (पसंग) 2/1 च (अ)=एवं पहुणो (पहु) 1/2 जं (ज) 1/1 णिअन-फलं [(रिणप्रत्र) वि-(फल)1/1] तं (त) 1/1 ताण (त) 4/2 स फलं (फल) 1/1 ति (अ)=इस प्रकार मण्णंति (मण्ण) व 3/2 सक 26. अण्णो (अण्ण) 1/1 वि वि अ) = भी रणाम (प्र) = वास्तव में विहवी (विहवि) 1/1 वि सुहाई (सुह) 2/2 लीलासहाई ((लीला)-(सह) 2/2 वि ] णिव्यिसइ (णि व्विस) व 3/1 सक असमंजस-करणेच्चेन [(असमंजस)-करण) 7/1] च्चेस (प्र)=ही णवर (अ)-केवल. णिव्वडइ (रिणब्वड) व 3/1 अक पहुभावो [(पहु) वि-(भाब) 1/1] 27. अंदोलताण (प्रदोल) वकृ 6/2 खणं (क्रिवित्र)=एक क्षण में गरुपाण (गरुन) 6/2 प्रणाअरे (अणापर) 7/1 पहु-कमम्मि ](पहु)—(कप्र) भूक 7/1 अनि] हिअन (हिप्रप) 1/1 खल-बहुमाणावलोप्रणे [ ( खल )+ (बहुमारण) + (प्रवलोप्रणे)] [(खल)- (बहुमाण)(अवलोप्रण) 7/1] णवर (अ) केवल णिम्वाइ (रिणव्वा) व 3/1 अक x कभी कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । [हेम प्राकृत ध्याकरण : 3-135] 28. पत्थिव-घरेसु [(पत्थिव)-(घर) 7/2] गुणिणो (गुरिण) 1/2 वि ___ (अ)=भी णाम (प्र) नाम से. जइ (अ)=यदि के (क) 1/2 सवि बापतिराज की 46 For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि (अ)='के'. प्रादि के साथ जोड़ दिया जाता है । सावपास (सअवसास) 1/2 वि अागे संतुक्त अक्षर (व्व) के आने से दीर्घ स्वर हस्व स्वर हुअा है। व्व (अ)=थोड़ी जण-सामण्णं [(जण)-(सामण्ण) J/1] तं (त) 1/1 सवि ताण (त) 4/2 स किपि (प्र)-कुछ अण्णं (अण्ण) 1/| वि चिन (अ)-ही णिमित्त (रिणमित्त) 1/1 29. वच्चंति (वच्च) व 3/2 सक वेस-भावं [(वेस)-(भाव) 2/1] जेहिं (ज) 3/2 सवि चिअ (अ)-ही सज्जणा (सज्जण) 1/2 गरिंदाण (गरिंद) 6/2 तेहिं (त) 3/2 स बहुमाणं (बहुमाण) 2/1 गुहि (गुण) 3/2 किं (अ)-क्यों णाम (अ)=मैं जानना चाहूंगा। मग्गंति (मग्ग) व 3/2 सक 30. को (क) 1/1 स व्व (प्र)='को' आदि के साथ जोड़ दिया जाता है । ण (प्र)=नहीं परंमुहो (परंमुह) 1/1 वि णिग्गुणाण (रिण-गुण) 6/2 वि गुणिणो (गुणि) 1/2 वि कं (क) 2/1 स व (अ)='क' आदि के साथ जोड़ दिया जाता है । दूर्मेति (दूम) व 3/2 सक जो (ज) 1/1 स वा (अ)-या गुणी (गुणि) 1/1 वि वा (अ)=या णिग्गुणो (णिगुण) 1/1 वि सो (त) 1/1 स सुहं (क्रिविप्र)-सुख पूर्वक जिअइ (जिन) व:3/1 अक जं (ज) 1/1 स सुप्रणेसु (सुप्रण) 7/2 णिअत्तइ (रिणप्रत्त) व 3/1 अक पहूण (पहू) 6/2 पडिवत्ति-णीसहं [(पडिवत्ति)-(णीसह) 1/1 वि] हिन(हिप्रय) 1/1 तं (अ)-तो खु (अ)=वास्तव ये इमं (इम) 1/1 सवि रप्रणाहरण-मोअणं [(रमण) + (प्राहरण) + (मोमणं)] लोकानुभूति For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [(रमण)-(आहरण)- (मोपण) 1/1] गारव-भएण [(गारव)(भप्र) 3/1] * कभी कभी पंचमी विभक्ति के स्थान सप्तमी. विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। [हेम प्राकृत व्याकरण : 3-136] 32. अविवेम-संकिणोच्चअ [(प्रविवेप्र)-(संकि) 1/2 वि] च्चेअ (अ)= ही णिग्गुणा (णि-ग्गुण) 1/2 वि पर-गुणे [(पर) वि-(गुण) 2/2] पसंसंति (पसंस) व 3/2 सक लद्ध-गुणा [(लद्ध) भूक अनि-(गुण) 1/2] उण (प्र)-परन्तु पहुणो (पहु) 1/2 वाढं (अ)=बहुत ज्यादा वामा (वाम) 1/2 वि पर-गुणेसु[(पर) वि-(गुण) 7/2] 33. सम्वो (सव्व) 1/1 वि च्चिन (अ) ही स-गुणुक्करिस लालसो [(स) + (ग्रुण) + (उक्करिस)+ (लालसो)] [(स) वि-(गुण)-(उक्करिस)–(लासस) 1/1 वि] वहइ (वह) व 3/1 सक मच्छरुच्छांह [(मच्छर)+ (उच्छाह)] [(मच्छर) वि--(उच्छाह) 2/1] ते (त) 1/2 वि पिसुणा (पिसुण) 1/2 जे (ज) 1/2 स ण (अ)=नहीं सहंति (सह) व 3/2 सक णिग्गुणा (णिग्गुण) 1/2 वि पर-गुणुग्गारे [(पर)+ (गुण) + (उग्गारे)] [(पर)--(गुण)-(उग्गार) 2/2] 34. सुप्रणतणेण (सुअणत्तण) 3/1 घेप्पड (घेप्पइ) व कर्म 3/1 सक अनि थोएणं (थोप) 3/1 वि चित्र (प्र) ही परो (पर) 1/1 वि सुचरिएण (सुचरित्र) 3/1 दुक्ख परिप्रोसिमन्वो [(दुक्ख)-(परिप्रोस) विधि कू 1/1] अप्पागो (अप्पाण) 1/1 च्चे (प्र) ही लोअस्स (लोअ) 6/1. वाक्पतिराम की For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___35. मोत्तु (मोत्त) हेकृ अनि गुणावलेवो [(गुण) + (अवंलेवो)] [(गुण)(प्रवलेव) 1/1] तीरइ (तीर) व 3/1 अक कह णु (म) = कैसे विषय-ट्ठिएहि [(विणय)-ट्ठि) भूक 3/2 अनि] पि (प्र) - भी मुक्कम्मि (मुक्क) भूक 7/1 पनि जम्मि (ज) 7/1 स सो (त) 1/1 सवि च्चिअ (प्र) =ही विउणपरं (क्रिविन) = दुगने से भी अधिक रूप से फुरइ (फुर) व 3/1 अक हिअम्मि (हिप्र) 7/1 36. दूमिज्जंता (दूम) कर्म वकृ 1/2 हिपएण' (हिप्रम) 3/1 किंपि (प्र) - कुछ चितेंति (चिंत) व 3/2 सक जइ (अ) = यदि ण (अ) = नहीं जाणामि (जाण) व 1/1 सक किरियासु (किरिया) 7/2 पुण (अ) = किन्तु पअति (पअट्ट) व 3/2 अक सज्जणा (सज्जण) 1/2 णावरद्ध [(ण) + (अवरद्ध)] ण (अ) = नही अवरद्ध (प्रवरद्ध) 7/1 वि (अ) = भी * कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया यिभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत ब्याकरणः 3-137) 37. महिमं (महिम) 2/1 दोसाण (दोस) 4/2 गुणा (गुण) 1/2 - दोसा (दोस) 1/2 वि (प्र) = तथा हु (अ) = भी देति (दा) - व 3/2 सक गुण-णिहाअस्स [(गुण)-(णिहाप्र) 4/2] दोसाण (दोस) 6/2 जे (ज) 1/2 सवि गुणा (गुण) 1/2 ते (त) 1/2 स गुणाण (गुण) 6/2 जइ (म) - यदि ता (प्र) - ती णमो (प्र) = नमस्कार ताण (त) 4/2 स 38. - संसेविळण (सं-सेव) संकृ दोसे (दोस) 2/2 अप्पा (अप्प) 1/1 लोकानुभूति :-... 49 For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोरई (तीर) व 3/1 अक गुण-डिओ [(गुण)-(द्विन) भूक 1/1 अनि ] काउं ( काउं) हेकृ अनि णिव्वनिम-गुणाण [(णिवडिप्र) बि-(गुण) 6/2] पुणो (अ)=किन्तु दोसेसु (दोस) 7/2 मई (मइ) 1/1 ग (म) = नहीं संठाइ (संठा) ब 3/1 अक 39. मह (अ) = वास्तव में मोहो (मोह) 1/1 पर गुण-लहुप्रभाए [(पर)-(गुण)-(लहुप्रमा) 3/1] जं (अ) = कि किर. (अ) जैसा कि लोग कहते हैं गुणा (गुण) 1/2 पयति (पयट्ट) व 3/2 अक अप्पाण-गारवंचिन [(अप्पाण)-(गारव) 1/1] चित्र (अ) = ही गुणाण (गुण) 6/2 गरुनत्तण-णिमित्त [(गरुपत्तण) (रिणमित्त) 1/1] 40. वुभंते (वुभंते) व कर्म 3/2 सक आनि जम्मि (ज) 7/1 सवि गुणुण्णमा [(गुण) + (उण्णा )] [(गुण)-(उण्णा )] 1/2 वि] वि (प्र) - भी लहुअत्तणं (लहुअत्तण) 2/1 ब (प्र) = मानो पार्वति (पाव) व 3/2 सक कह (म) - कैसे णाम (अ) - यथार्थ में णिग्गुण (णिग्गुण) 1/2 आगे संयुक्त प्रक्षर (च्चिन) के पाने से दीर्घ स्वर हृस्व हुआ है। च्चिन (अ) = भी तं (त) 2/1 सवि वहंति (वह) व 3/2 सक माहप्पं (माहप्प) 2/1 * प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमान का प्रयोग भयिष्यत् काल के अर्थ में हो जाया करता हैं । 41. माहप्पे (माहप्प) 7/1 गुण-कज्जम्मि [(गुण)-(कज्ज) 7/1] वाक्पतिराज की 50 For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42. अगुण-कज्जे [(अ-गुण)-(कज्ज) 7/1] णिबद्ध-माहप्प [(णिबद्ध) भूकृ प्रानि-(माहप्प) 1/2] विवरीनं (विवरीअ) 2/1 वि उप्पत्ति (उप्पत्ति) 2/1 गुणाणत (गुण) 6/2 इच्छंति (इच्छ) व 3/2 सक कावुरिसा (कावुरिस) 1/2 । a कभी कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-135) d कभी कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पंचमी विभक्ति के स्थान पर पाया जाता है । (हेम प्राकृत ध्याकरण : 3-134) गुण-संभवो [ (गुण)-(संभव) 1/1] मनो (मन) 1/1 सुपुरिसाण (सु-पुरिस) 6/2 संकमइ (संकम) व 3/1 सक णेन (अ) = कभी नहीं हिअम्मि (हिप्र) 7/1 तेण (अ) - इस तरह अणिम्वूढ-मन [(प्र-णि ठवूढ) भूकृ अनि-(मप्र) 5/1 आगे संयुक्त अक्षर व्व के प्राने से दीर्घ स्वर ह्रस्व हुआ है] व्व (अ) = भी ताण (त) 6/2 सवि गरुपा (गरुन) 1/2 वि गुणा (गुण) 1/2 होंति (हो) व 3/2 अक * किसी कार्य का कारण बतलाने के लिए संज्ञा शब्द में तृतीया या पंचमी का प्रयोग किया जाता है । 43. ता (अ) = तब तक चेन (अ) - ही मच्छर-मलं [(मच्छर)-(मल) 1/1] जाव (अ) = जब तक विवेपो (विवेन) 1/1 फुडं (अ) = स्पष्ट रूप से ण (अ) = नहीं विफ्फुरइ (विप्फुर) व 3/1 अक मलिनं (जल) भूक 1/1 च (अ) = एक ओर भगवा (भअवमा) 3/1 अनि हुअवहेण (हुअवह) 3/1 धूमो (घूम) 1/1 4 - (अ) = दूसरी ओर विणिप्रत्तो (विणिप्रत्त) भूकृ 1/1 अनि लोकानुभूति 51 For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44. गुणिणो (गुणि) 1/2 वि विहवारूढाण [(विहव) + (आरूढाण)] [(विहव)-(प्रारुढ) 4/2 वि] विहविणो (विहवि) 1/2 वि गुरु-गुणाण' [(गुरु)-(गुण) 6/2] (अ) = नहीं हु (अ) = प्राश्चर्य किपि (अ) = कुछ लहुअन्ति (लहुअ) व 3/2 सक व (प्र) = जैसे अण्णोण्णं (प्र) - आपस में गिरीण (गिरि) 6/2 जे (ज) 1/2 स मूल-सिहरेस [(मूल)-(सिहर) 7/2] * कभी कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग सप्तमी विभक्ति के स्थान पर पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) . 45. जह (अ) = जैसे, जह (प्र) = जैसे णग्धंति [(ण)+ (अग्घंति)] .. ण (अ)=नहीं अग्धति (अग्घ) व 3/2 अक गुणा (गुण) 1/2 दोसा (दोस) 1/2 4 (अ)- तथा संपइ (अ) - इस समय फलंति ( फल ) व 3/2 अक प्रगुणापरेण [ ( अगुण )+ (आपरेण)] [(अगुण)-(प्राअर) 3/1] तह (अ = बैसे तह (म) = वैसे गुण-सुण्णं [(गुण)-(सुण्ण) 1/1] होहिइ (हो) भवि 3/1 अक जनं (जस). 1/1 पि (अ) = भी * कभी कमी वर्तमान काल तात्कालिक भविष्यत् काल का बोध कराता है। 46. कि (कि) 1/1 सवि व (प्र) - भी गरिदेहिं (रिंद) 3/2 विवेत्र मुक्क समलाहिलास-णीसंगा [(विवेप्र) + (मुक्क) + (सप्रल)+ (अहिलास) + (णीसंगा)] [(विवेप्र)-(मुक्क) भूक प्रानि (समल) वि-(महिलास)-(णीसंग) 1/2 वि] विहिणो (विहि) 6/1 वाक्पतिराज की For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि (प्र)=भी धीर-पडिबद्ध-परिभरा [(धीर)-(पडिबद्ध) भूकृ पनि(परिभर) 5/1] होंति (हो) व 3/2 अक सप्पुरिसा (सप्पुरिस) 1/2 d किसी कार्य का कारण बतलाने के लिए संज्ञा शब्द में तृतीया या पंचमी का प्रयोग किया जाता है । कभी कभी षष्ठी का प्रयोग तृतीया के स्थान पर भी होता है (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) 47. विण्णाणालोमोच्चिन [ ( विण्णाण )+ ( पालोमो)+(चित्र) ] [विण्णाण)-(प्रालोस) 1/1] चित्र (अ) = ही कुमईण (कुमइ) 6/2 विसारनं (वि-सारमा) 2/1 पासेइ (पप्रास) व 3/1 सक कसणाण (कसण) 6/2 वि मणीणं (मणि) 6/2 पिव (प्र) = जैसे तेअ-प्फुरणं [(तेप्र)-(प्फुरण) 1/1] सिनं (सिप्र) 1/1 वि 48. हिमन-विप्रडत्तणेणं [(हिप्र)-(विअडत्तण) 3/1] गरुपाण (गरुष) 6/2 T (अ) - नहीं णिव्वडंति (णिव्वड) व 3/2 अक बुद्धीमो (बुद्धि) 1/2 घोलंति (घोल) व 3/2 अक महा-भवणेसु [(महा)(भवण) 7/2] मंद-किरण [(मंद) वि-(किरण) 1/2 मागे संयुक्त मक्षर (च्चिन) के प्राने से दीर्घ स्वर ह्रस्व हुआ है] च्चिन (प्र) = ही पईवा (पईव) 5/1 49. अच्चंत-विएएण [(प्रच्चंत) वि-(विएअ) 3/1 वि] वि (अ)- ही गरुआण (गरुन) 6/2 वि प्र)=नहीं णिव्वडंति (रिणव्वड) व . 3/2 प्रक संकप्पा (संकप्प) 1/2 विज्जुज्जोरो [ (विज्जु)+ लोकानुभूति 53 For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50. 51. (उज्जोमो)] [(विज्जु)-(उज्जोप) 1/1] बहलत्तणेण (बहलत्तण) 3/1 मोहेइ (मोह) व 3/1 सक अच्छीई (अच्छी। 2/2 जे (ज) 1/2 स गेण्हंति (गेण्ह) व 3/2 सक सयं . (प्र) = स्वयं चित्र (अ) = ही लच्छि (लच्छी) 2/1 ग (अ)- नहीं हु (म) = वास्तव में ते (त) 1/2 स गारव-टाणं [(गारव)-(द्वाण) 1/1] उण (प्र) = किन्तु केवि (क) 1/2 सवि = कुछ वालिब ( दलिद्द) 1/1 घेप्पए (घेप्पए) ध कर्म 3/1 सक अनि जेहिं (ज) 3/2 स. *प्रश्नवाचक शब्दों के साथ जुड़ कर अनिश्चितता के अर्थ को बतलाता है। एक्के (एक्क) 1/2 सवि पावंति (पाव) व 3/2 सक ग (प्र)- नहीं तं (ता) 2/1 स अण्णे (अण्ण) 1/2 सवि परमो (प्र) = परे व्व (प्र) = तथा तीए (ती) 6/1 दीसंति (दीसंति) व कर्म 3/2 सक अनि इराण (इमर) 6/2 वि महम्पारणं (महग्ध) 6/2 विच (प्र) तथा अंतरे (अंतर) 7/1 णिवसह (रिणवस) व 3/1 प्रक पसंसा (पसंसा) 1/1 . मरणमहिणंदमाणाण [(मरणं) + (अहिणंदमाणाण)] मरणं (मरण) 2/1 अहिणंदमाणाण (अहिणंद) वकृ 6/2 अप्पण (अप्पण) 3/1 मागे संयुक्त अक्षर (च्चेप्र) के आने से दीर्घ स्वर ह्रस्व स्वर हुअा है । च्चेस (अ)-ही मुक्क-विहवाण [(मुक्क) भूक अनि-(विहव) 6/2] कुणइ (कुण) व 3/1 सक कुवित्रो (कुविन) 1/1 वि कतो (कअंत) 1/1 जइ (प्र) = यदि विवरीअं (विवरी) 2/1 वि सु-पुरिसाण (सु-पुरिस) 4/2 बापति राज को 52. म 54 For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53. उवमरणीभूत्र-जना [(उवभरणी) वि-(भूअ) भूकृ-(जन - 2/2] रण (अ)=नहीं हु (प्र) = प्राश्चर्य णवर (अ) - केवल पावित्रा (पाव) भूकृ 1/2 पहु-ट्ठारण [(पहु) वि-(ट्ठाण) 2/1] उवअरणं (उवमरण) 2/1 पि (अ) = भी जाना (जा) भूकृ 1/2 गुण-गुरुणो [(गुण)(गुरु) 1/2] काल-दोसेण [(काल)-(दोस) 3/1] * कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-137) तथा 'जन' 'मानव जाति' अर्थ में बहु-वचन में प्रयुक्त होता है । 54. विसइ (विस व 3/1 अक च्चेन (अ) = ही सरहसं (क्रिविअ)= उत्सुकता से जेसु (ज) 7/2 सवि किं (किं) 1/1 स. तेहि (त) 3/2 सवि खंडिप्रासेहिं [(खंडिअ) + (प्रामेहि)] [(खंडिय) वि(प्रास) 3/2] णिक्खमइ (रिणक्खम) व 3/1 अक जेसु (ज) 7/2 सवि परिप्रोस णिन्भरो [(परिप्रोस)-(णिब्भर)] 1/1 वि] ताई (त) 1/2 सवि गेहाई (गेह) 1/2 55. उज्झइ (उज्झ) व 3/1 सक उपार-भावं [(उप्रार)-'भाव) 2/1] दक्खिण्णं (दक्खिण्ण) 2/1 करुणनं (करुण) 2/1 'अ' स्वार्थिक प्रत्यय. च (अ) = प्रौर प्रामुअइ (प्रामुग्र) व 3/1 सक काण (क) 4/2 वि (प्र)= भी समोसरंतो (समोसर) वकृ 1/1 छिप्पइ (छिप्प इ) व कर्म 3/1 अनि. पुहवी (पुहवी) 1/1 वि (प्र) = भी पावेहिं (पाव) 3/2 56. अंतो (प्र) - प्रांतरिक रूप से च्चिन (प्र) = ही णिहुअं (अ) = चुपचाप विहसिऊण (विहस) संकृ अच्छंति (अच्छ) व 3/2 अक विम्हिना लोकानुभूति 55 For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (विम्हिन) 1/2 वि ताहे (प्र) = तब इधर-सुलह [(इपर) वि(सुलह) 1/1 वि] पि (प्र) = भी नाहे (प्र)- जब गरमाण (गरुम) 4/2 वि ण (म)- नहीं किंपि (प्र) = थोड़ी सी संपडइ (संपड) व 3/1 प्रक 57. दाति (दाव) व 3/2 सक सज्जणाणं (सज्जण) 6/2 इच्छा-गरुनं [(इच्छा)-(गरुन) 2/1 वि] परिग्गहं (परिग्गह) 2/1 गरुमा (गरुप) 1/2 वि मण-विणिवेस -दिट्ठ [(मप्रण)-(विणिवेस)(दिट्ठ) भूक 1/1 अनि] महा-मणोणं [(महा)-(मणि) 6/2] व (प्र) = जैसे पडिबिंब (पडिबिंब) 1/1 * कभी कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग द्वितीया विभक्ति के स्थान पर पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) 58. साहीण-सज्जणा [(साहीण) वि-(सज्जण) 1/2] वि (अ) ही हु (म)= आश्चर्य णीन-पसंगे [(णीय) वि-(पसंग) 7/1] रमंति (रम) व 3/2 प्रक काउरिसा (काउरिस) 1/2 सा (ता) 1/1 स इर (अ)- निश्चय ही लीला (लीला) 1/1 जं (प्र) = कि काम-धारणं (काम)-(धारण) 1/1] सुलह-रप्रणाण [(सुलह) वि(रप्रण) 6/2] * कभी कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग सप्तमी के स्थान पर होता है (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) थाम-स्थाम-णिवेसिम-सिरीण: [थाम)-(त्थाम)-(णिवेसिप) भूकृ(सिरी) 6/2] गहाण (गरुप्र) 4/2 कह (प्र) = कैसे गु (अ)= संभावना बालिई (दालिद्द) 1/1 एक्का (एक्का) 1/1 वि उण 59. 56 बापतिरान को For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (प्र) = किन्तु किविण-सिरी [(किविण)-(सिरी) 1/1] गया (गया) भूकृ 1/1 अनि प्र (प्र)- यदि मूलं (मूल) 1/1 च (अ)-ही पम्हुसिनं (पम्हुस) भूक 1/1 60. किविणाण (किविण) 6/2 अण्ण-विसए [(अण्ण) वि-(विसम) 7/1] दाण-गुणे [(दाण)-(गुण) 2/2] अहिसलाहमाणाण (अहिसलाह) वक 6/2 णिअ-चाए [(णिप्र) वि-(चाप) 7/1] उच्छाहो (उच्छाह) 1/1 ग (अ) = नहीं णाम (प्र) आश्चर्य कह (प्र)- कैसे बा (प्र)-और लज्जा (लज्जा ) 1/1 वि (प्र) = भी 61. परमत्य-पाविन-गुणा [ (परमत्थ)-(पावित्र) भूकृ-(गुण) 1/2 ] गरुनं (गरुमा) 2/1 वि पि (प्र) = भी हु (प्र)- चूंकि पलहुयं (पलहुअ) 1/1 वि व (प्र) = की तरह मण्णंति (मण्ण) व 3/2 सक तेण (अ) = इसलिए सिरीए (सिरी) 6/1 विरोहो (विरोह) 1/1 गुणेहिं (गुण) 3/2 गिक्कारणं (क्रिवित्र)- बिना कारण ण (अ)नही उण (म)- वास्तव में 'परमत्थ' का प्रयोग समास पद में वास्तविक अर्थ प्रकट करता है। २ . . भुममा-भंगारपत्ता [ (मुममा) + (मंग) + (प्राणता) ] [ (भुममा)(मंग)-(प्राणत्ता) 1/1 वि] वि (अ) = भी सुरिस (सुवुरिस) 2/15 (म)=चूकि ण (प्र)=नहीं तुरिअमल्लिाइ [(तुरिअं) + (अल्लिाइ)] तुरिनं (प्र) = शीघ्रता से अल्लिइ (अल्लिम) व 3/1 सक तं (म) = उस कारण से मण्णे (प्र)-विमर्श सूचक लोकानुभूति ... 57 . For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यय धावंती (घाव) वकृ 1/1 रहसेण (क्रिवित्र) = वेग से सिरी (सिरी) 1/1 परिक्खलइ (परिक्खल) व 3/1 प्रक . * गत्यार्थक क्रियाओं के योग में द्वितीया विभक्ति होती है । गण (प्र)=निस्संदेह गासमणवलंबा [ (णासं) + (अणवलंबा) ] णासं (णास) 2/1 प्रणवलंबा (अण:-अवलंबा) 1/1 वि एइ (ए) व 3/1 सक च्चिन (अ) = बिल्कुल सा (ता) 1/1 स वि (भ) - भी सुरिसाभावे [(सुवुरिस) + (मभावे)] [(सुवुरिस)-(प्रभाव) 7/1] देव-वसा [(देव)-(वसा) क्रिविन = के कारण] तेण (त) 3/1 स सिरीए (सिरी) 6/1 होइ (हो) व 3/1 अक णासंसियो [(णा) + (प्रासंसियो)] णा (प्र) = नहीं प्रासंसियो (प्रासंसिन) 1/1 वि विरहो (विरह) 1/1 64. धम्म-पसूपा [(धम्म)-(पसूत्रा) 1/1 वि] कह (अ) = कैसे होउ (हो) विधि 3/1 अक भगवई (भप्रवई) 1/1 वेस सज्जणा [(वेस)-(सज्जण) 5/1] लच्छी (लच्छी) 1/1 ताप्रो (ता) 1/2 सवि अलच्छिनो (अलच्छि) 1/2 चिन (अ) = ही लच्छि-णिहा [(लच्छि)-(णिहा) 1/2 वि] जा (जा) 1/2 सवि अणज्जेस (मणज्ज) 7/2 वि 65. जा (जा) 1/2 सवि विउला (विउला) 1/2 जामो (जा) 1/2 सवि चिरं (अ) = दीर्घ काल तक जा (जा) 1/2 सवि परिहोउज्जलानो [ (परिहोस) + (उज्जलामो) ] [ (परिहोस)(उज्जला) 1/2 वि] लच्छीओ (लच्छी) 1/2 प्रापारघराणं 58 वाक्पतिराज की For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66. ( आधारघर ) 6 / 2 •वि चित्र ( अ ) - ही ताम्रो सवि ण ( अ ) = नहीं उणो ( अ ) = निश्चय ही प्र इराण ( इअर ) 6 / 2 वि ues (वणी) व तथा गुणे ( गुण) सक पचासं (पचास ) X 67. अण्णोष्णं (अ) 3 / 1 सक देइ (दा) व 3 / 1 2 / 2 दोसे ( दोस) 2 / 2 णूमेह 2 / 1 दीसइ ( दीसइ) व कर्म ( ता ) 1/2 ( अ ) - किन्तु सक अ ( (णूम ) 3 / 1 For Personal & Private Use Only अ ) = व एस (एत) 1 / 1 सवि विरुद्धो (विरुद्ध) 1 / 1 वि व्व ( अ ) - तुल्य को fa* (क) 1 / 1 सवि - कुछ लच्छोए ( लच्छी ) 6 / 1 विण्णासो (faumra) 1/1 प्रश्नवाचक शब्दों के साथ जुड़कर अनिश्चितता के अर्थ को बतलाता है । = 3 / 1 सक अनि = एक दूसरे के साथ लच्छिगुणाण * [ ( लच्छि ) - ( गुण) 6 / 2 ] णूण ( अ ) - पूरी संभावना है कि पिसुणा (पिसु ) 1/2 वि गुण (गुरण) 1 / 2 प्रागे संयुक्त अक्षर (च्चित्र) के आने से दीर्घ स्वर ह्रस्व स्वर हुआ है । च्चित्र (प्र) = ही ण ( प्र ) = नहीं लच्छी ( लच्छी) 1 / 1 अहिलेइ (हि-ले) व 3 / 1 सक गुणे ( गुण) 2 / 2 fच्छ ( लच्छी) 2 / 1 उणो ( अ ) = किन्तु गुणा ( गण ) 1 / 2 जेण (प्र) = क्योंकि . * जिस समुदाय में से एक को छींटा जाता है उस समुदाय में षष्ठी प्रथवा सप्तमी विभक्ति होती है । 68. दुक्खाभावो [ ( दुक्ख) + (प्रभावो)] [(दुक्ख ) - (प्रभाव) 1 / 1] न लोकानुभूति 59 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 69. (अ)-नहीं सुहं (सुह) 1/1 ताई त) 1/2 सवि वि (प्र) = भी सुहाई (सुह) 1/2 जाइं (ज) 1/2 संवि सोपखाई (सोक्ख) 1/2 मोत्तूण (मोत्तूण) संकृ अनि सुहाई (सुह) 2/2 सुहाई (सुह) 1/2 जाइं (ज) 1/2 सवि ताई (त) 1/2 सवि च्चिन (प्र) ही सहाई (सुह) 1/2 सुह-संग-गारवे [(सुह)-(संग)-(गारव) 7/1] चिन (अ) ही हवंति (हव) व 3/2 अक दुक्खाइं (दुक्ख) 1/2 दारुणपराई (दारुण-अर) 1/2 तुवि पालोउक्करिसे [ (पालोन) + (उक्करिसे) ] [ (मालोम)-(उक्करिस) 7/1 वि ] च्छाया (च्छाया) 1/1 बहलत्तणमुवेइ [(बहलत्तणं) + (उवेइ)] बहलत्तणं (बहलत्तण) 2/1 उवेइ (उवे) व 3/1 सक सुह-संगो [(सुह)-(संग) 1/1] सुह-विणिवत्तिएक्क-चित्ताण [(सुह)(विणिवत्ति)-(एक्क)] वि-(चित्त) 6/2] अविरनं (अ) = लगातार फुरइ (फुर) व 3/1 अक अंगुलि-पिहिमाण [(अंगुलि)-(पिहिन) 6/2] रवो (रव) 1/1 अम्वोच्छिण्णो (अव्वोच्छिण्ण) 1/1 वि व्व (अ) - जैसे कण्णाण (कण्ण) 6/2 * कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) 70. 71. दूमिज्जंताई (दूम) कर्म वकृ 1/2 वि (प्र) - भी सहमुर्वेति [(सुहं) + (उति)] सुहं (सुह) 2/1 उर्वति (उवे) व 3/2 सक गठमाण (गरुष) 6/2 वि णिअन-दुक्खेहि [(णिप्रन) वि-(दुक्ख) 3/2] रस-बंहिं [(रस)-(वंध) 3/2] कईण (कइ) 6/2 व (प्र) जैसे वाक्पतिराज की For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विइण्ण-करुणाई [(विइण्ण) भूक अनि-(करुण) 2/2] हिसाई (हिप्र) 1/2 72. अण्णण्णाई (अण्णण्ण) 2/2 वि उर्वता (उवे) वकृ 1/2 संसार वहम्मि [(संसार)-(वह) 7/1] गिरवसाणम्मि (णिरवसाण) 7/1 वि मण्णंति (मण्ण) व 3/2 सक धीर-हिमा [(धीर) वि(हिप्रम) 1/2] वसइ-ट्ठाणाई [(वसइ)-(ट्ठाण) 1/2] व (प्र)= की तरह कुलाई (कुल) 2/2 73. ससिएहिं (ससिप) 3/2 चिन (अ)- ही लोगो (लोअ) 1/1 दुक्खं (दुक्ख) 2/1 लहुएइ (लहुअ) व 3/1 सक दुक्ख-गणिएहि [(दुक्ख)-(जण) भूक 3/2] प्रायास करहिं [(प्रायास)-(का) भूक 3/2 अनि] करी (करि) 1/1 प्रायासं (प्रायास) 2/1 सीपरेहिं (सीअर) 3/2 व (म)=जैसे 74. पहरिस-मिसेण [(पहरिस)-(मिस) 3/1] बाहों (बाह) 1/1 जं (प्र)-चूकि बंधु-समागमे [(बंधु)-(समागम) 7/1] समुत्तरइ (समुत्तर) व 3/1 अक वोच्छेप्र-कापराई [(वोच्छेत्र)- (कार) 1/2 वि] तं (अ)=तो गुण (अ) =पूरी संभावना है कि गलंति (गल) व 3/2 अक हिप्रपाइं (हिअन) 1/2 75. मूढ (मूढ) 8/1 वि सिढिलत्तणं (सिढिलत्तण) 1/1 ते (तुम्ह) 4/1 सणेह-वासेण [(सणेह -(वास) 3/1] कह (अ) = कैसे णु (अ) - संभावना बद्धस्स (बद्ध) भूक 4/1 अनि बाढं (अ) = बहुत ज्यादा गाढपराअइ [(गाढप्रर)(प्राइ)] [(गाढअर) तुवि-(प्रा) लोकानुभूति 61 For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व 3/1 अक] जो (ज) 1/1 सवि इर (प्र) -- चूकि मोत्तु (मोत्तु) हेकृ अनि तणंतस्स (तण) व 4/1 * अकारान्त धातुओं के अतिरिक्त अन्य स्वरान्त धातुओं में विकल्प से .. 'प्र' जोड़ने के पश्चात् प्रत्यय जोड़ा जाता है। . 76. कालवसा [(काल)-(वसा) क्रिविप्र के कारण] पासमुवागप्रस्स [ (णासं) + (उवागअस्स) ] णासं (णास) 2/1 उवागअस्स (उवागअ) 6/1 सप्पुरिस-जस-सरीरस्स [ (सप्पुरिस)-(जस)(सरीर) 6/1 ] अहि-लवाति [ (अट्ठि) + (लव) + (प्राग्रंति)] [(अट्ठि)-(लव) वि-(प्रा) व 3/2 अक] कहिँपि (अ)=किसी जगह विरल-विरला [(विरल)-(विरल) 1/2 वि] गुणुग्गारा [(गुण) + (उग्गारा)] [(गुण)-(उग्गार) 1/2] x गाथा 75 देखें। 77. को (क) 1/1 सवि तेसु (त) 7/2 सवि दुग्गपारणं (दुग्गअ) भूक 6/2 अनि गुणेसु (गुण) 7/2 अण्णो (अण्ण) 1/1 सवि कमारो [(क)+ (प्राअरो)] [(कप्र) भूकृ अनि-(प्रापर) 1/1] होइ (हो) व 3/] अक अप्पा (अप्प) 1/1 वि (म)=ही गाम (प्र)= सचमुच णिव्वेप्र-विमुहनं [(रिणव्वेप्र)-(विमुहा) 2/1] जेस (ज) 7/2 सवि दावेइ (दाव) व 3/1 सक 78. हिम (हिप) 8/1 कहिं (अ)= किसी जगह पर पि (प्र)=भी रिणसम्मसु (णि-सम्म ) विधि 2/1 अक कितिप्रमासाहप्रो (कित्तिअं)+ (प्रासा) + (हो)] कित्ति (अ)=कितने समय तक [(प्रासा)-(हप्र) भूकृ 1/1 अनि] किलिम्मिहिसि (किलिम्म) भवि वापतिराज की For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 79. 2/1 क दीणो ( दीण) 1 / 1 वि वि (श्र) = ही वरं (प्र) = श्रेष्ठतर एक्स (एक्क) 6/1 विण (अ ) = नहीं उण (प्र) - किन्तु स लाए (सग्नल→ सनला) 6/1 वि पुहवीए (पुहवी ) 6/1 81. अच्छउ ( श्रच्छ) विधि 3 / 1 अक ता (प्र) = तो विहलुद्धरणगारवं ] [ ( विहल) वि - (उद्धरण) - [ ( विहल ) + (उद्धरण) + (गारवं ) ( गारव) 1 / 1 ] ( अगरु ) 7 / 2 वि श्रप्पारणस्स कत्थ ( अ ) = कैसे ( अ ) = इसलिए प्रगरु सु* (अप्पारण ) 6 / 1 स्वार्थिक 'प्र' प्रत्यय वि (श्र) = भी पियं ( पिय) 2 / 1 इअरा ( इअर ) 1/2 वि काउं ( काउं) हे प्रनि ग ( प्र ) = नहीं पारंति (पार) व 3 /2 क * कभी कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है | ( हेम प्राकृतं व्याकरण : 3-135 ) 80. भूरि-गुणा [ ( भूरि ) - ( गुण) 1 / 2 ] विरल (विरल) 1 / 2 वि श्रागे संयुक्त अक्षर (चित्र) के आने से दीर्घ स्वर हृस्व स्वर हुआ है । च्चि (प्र) = वास्तव में एक्क गुणो [ ( एक्क) वि- (गुरण) 1 / 1] वि (प्र) = भी हु (प्र) = आश्चर्य जणो (जरा) 1 / 1 ण ( अ ) = नहीं सव्वत्थ (श्र) = सब जगह पर गिद्दोसाण ( णिद्दोस ) (अ) = भी भद्द (भद्द) 1 / 1 पसंसिमो ( पसंस ) व . विरल - दोसं | ( विरल) वि - ( दोस) 2 / 1] पि (अ) - भी 6 / 2 वि वि 2 / 2 सक तं थोवाग-दोस च्चि [ ( थोव) + ( प्राग ) + (दोस ) + (च्चित्र ) ] [ ( थोव) वि - (प्राग) वि - ( दोस) 2 5 / 1 आगे संयुक्त प्रक्षर (च्चित्र) के आने से दीर्घ स्वर ह्रस्व स्वर हुआ है ] च्चित्र ( अ ) = ही लोकानुभूति For Personal & Private Use Only 63 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ववहार-वहम्मि [(ववहार)-(वह) 7/1] होति (हो) व 3/2 प्रक सप्पुरिसा (सप्पुरिस) 1/2 इहरा (प्र) = अन्यथा गोसामणेहि (णीसामण्ण) 3/2 वि तेहिं (त) 3/2 सवि कह (प्र) = कैसे संग (संगम) 1/1 होइ (हो) व 3/1 प्रक .. d प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमान काल का प्रयोग भविष्यत् काल के अर्थ में हो जाता है। . • किसी कार्य का कारण बतलाने के लिए संज्ञा शब्द में तृतीया या पंचमी का प्रयोग किया जाता है। . 82. उक्करिसो (उक्करिस) 1/1 च्चेप्र (अ)ही ण (म) = नहीं जाण (ज) 6/2 सवि ताण (त) 6/2 सवि को (क) 1/1 सवि वा (अ)-कभी गुणाण' (गुण) 6/2 गुण-भावो [ (गुण)-(भाव) 1/1] सो (त) 1/1 सवि वा (प्र)=संभवतः पर-सुचरिन लंघणेण [(पर) वि-(सुचरिप) वि-(लंघण) 3/1] ण (प्र) = नहीं गुणत्तणं (गुणत्तण) 1/1 तह वि (म) तो भी * कभी कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) • संभावना अर्थ में 'वा' प्रश्नवाचक सर्वनाम के साथ जोड़ दिया जाता है। 83. गवरं (म) = केवल दोसा (दोस) 1/2 ते (त) 1/2 सवि च्चेष (प्र) = ही जे (ज) 1/2 सवि मप्रस्त(मप्र) भूक 6/1 अनि वि (अ)=भी जणस्स (जण) 6/1 सुव्वंति (सुव्वंति) व कर्म 3/2 सक पनि गज्जति (गज्जति) व कर्म 3/2 सक अनि जिअंतस्स वाक्पतिराज की For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (जिअ ) वक्र 6 / 1 वि (प्र) = ही जे (ज) 1 / 2 सवि गबर (प्र) = केवल गुणा ( गुण) 1 / 2 वि (प्र) = ओर ते (त) 1 / 2 सवि च्चे (प्र) = ही * कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-134) - 84. ववहारे* ( ववहार) 7 / 1 च्चित्र ( अ ) - ही छायं (छाया) 2/1 हि (रि) विधि 2/2 सक लोअस्स ( लोन ) 6/1 किंव (श्र) क्या हिश्रएण (हि) 3 / 1 तेउग्गमो [ (ते) + (उग्गमो ) ] [ (ते) - ( उग्गम) 1 / 1 ] मणीण (मरिण ) 6 / 2 वि ( अ ) = भी जो (ज) 1 / 1 स बाहिं ( अ ) = बाहर की ओर से सो (त) 1 / 1 सण ( प्र ) = नहीं भंग मि (भंग) 7/1 * कभी कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है | ( हेम प्राकृत व्याकरण: 3-135 ) 85. सम गुण-दोसा [ ( सम) वि - ( गुण ) - ( दोस) 1 /2] दोसेक्क - दंसिणो [(दोस) + (एक्क) + (दंसिणो)] [ ( दोस) - (एक्क) वि - ( दंसि ) 1 / 2 वि] संति (प्रस) व 3 / 2 अक दोस-गुण-वामा [ ( दोस)- (गुण) - (वाम) 1/2 वि ] गुण-दोस- वेइणो [ ( गुण) - (दोस ) - ( वेइ) 1/2 वि ] णत्थि (प्र) - नहीं जे (ज) 1 / 2 सवि उ (प्र) = प्रोर गेव्हंति (गेह) व 3 / 2 सक गुणमेतं [ ( गुण) - ( मेत्त) 2 / 1] 86. सच्चविप्रा सग्रल-गुणं [ ( सच्चविप्र ) + (असल ) + (गुणं ) ] [ ( सच्चविप्र ) भूकृ - (प्रसनल) वि - ( गुण) 1 / 1] पि (प्र) = यद्यपि लोकानुभूति For Personal & Private Use Only 65 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87. 88. 66 सज्जरगं (सज्जरण) 2/1 सुवुरिसा (सुवुरिस) 1 / 2 पसंसंति (पसंस) व 3 / 2 सक पडबंध - मिश्रद्ध [ ( पडिबंध) + (मिश्र) + ( श्रद्ध' ) ] को (क) 1 / 1 सवि [ ( पडिबंध) - (मिश्र) भूकृ ( श्रद्ध) 2 / 1] वा (प्र) = कभी रणं ( रमण ) 2 / 1 3/1 सक . 4 सोहइ (सोह) व 3 / 1 ग्रक प्रदोस भावो [ ( श्रदोस ) वि - (भाव) 1 / 1 ] गुणो ( गुरण) 1 / 1 ब्व (अ) - तथा जइ (प्र) - यदि होइ (हो) व 3 / 1 अक मच्छरुत्तिष्णो [ ( मच्छर ) + (उत्तिष्णो ) ] [( मच्छर ) - (उत्तिष्ण) 1 / 1 वि] विहवेसु (विहव) 7 / 2 व (प्र) = जैसे गुणेसु * ( गुण) 7/-2 वि (प्र) = भी दूमेइ ( दूम) व 3 / 1 सक ठिम्रो ठि) 1 / 1 वि अहंकारो (अहंकार) 1 / 1 * कभी कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-135) विश्रारेड ( विचार ) व जेण ( अ ) = चूँकि गुणग्धविप्राण [ ( गुण ) + ( अग्धविचारण)] [ ( ग ) - ( प्रग्धविश्र ) 6 / 2 वि] वि ( अ ) = यद्यपि ण ( अ ) = नहीं गारवं (गारव) 1 / 1 धण - लवेण [ ( धरण ) - ( लव) 3 / 1] रहिश्राण (रह ) भूकृ 6 / 2 तेण (प्र) = इसलिए विहवाण (विहव) 4 / 2 मिमी (म) व 1 / 2 सक तेर (त) 3 / 1 सवि चित्र (श्र ) - ही होउ (हो) व 3 / 1 श्रक विवैeिd ( विहव) 3 / 2 - a 'नमस्कार' के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है । कभी कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकररण : 3-136) For Personal & Private Use Only वाक्पतिराज की Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89. दविणोवप्रार- तुच्छा [ (दविण) + (उपचार) + (तुच्छा ) ] [ (दविण ) - (उवनार)-(तुच्छ) 1/2 वि] वि ( अ ) - यद्यपि सज्जणा ( सज्जण) 1/2 एत्तिएण (एतिप्र ) 3 / 1 वि धीरेंति (धीर) व 3 / 2 अक जं (प्र) - कि ते (त) 1/2 स मित्र - गुण - लेसेहि [ (रिम) वि - ( गुण) - (लेस) 3/2] देंनि (दा) व 3 / 2 सक कारणं ( क ) 4 / 2 सवि पि (अ) = ही परिश्रो ( परिस) 2 / 1 1 90. दूमंति (दूम) व 3 / 2 सक सज्जणार* (सज्जरण ) 6 / 2 पम्हुसिनदer * [ (सि) भूकृ - (दसा ) 6 / 2] तोस- कालम्मि [ ( तोस ) - ( काल ) 7 / 1 ] दाणार-संभम दिट्ठ- पास सुण्णाई ( अमर ) + ( संभम) + (दिट्ठ) + (पास) + (सुणाई) ] ( श्राश्रर) - ( संभम) - ( दिट्ठ) भूक अनि - ( पास ) - ( सु० ) विलिश्राइं (विलिन ) 1/2 [ ( दारण) - 1 / 2 ] * कभी कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-134) 91. [ सइ (अ) = सदा जाढर-चिताअड्ढि 2. ( जाढर) वि - ( चिंता ) - (अड्ढि ) 1 / 1 वि] व ( अ ) = तथा हिश्रश्रं (हिम) 1 / 1 ग्रहो ( अ ) = नीचे मुहं (मुह ) 1 / 1 जाण ( ज ) 6 / 2 सवि उधुर - चित्ता [ ( उधर ) वि- (चित्त) 1 / 2] कह ( अ ) - कैसे णाम (अ) = संभावना होतुं (हो) विधि 3/2 अक ते सुरण ववसाया [ (सुण्ण) वि - ( ववसाय ) 5 / 1] (त) 7/2 सवि ( दारण) + 92. लोए (लोभ) 7/1 प्रमुणित्र सारत्तणेण [ ( प्र- मुणिश्र) भूकृ( सारण ) 3 / 1] खणमेत्तमुव्विश्रंताण* [ ( खणमेत्तं ) + लोकानुभूति For Personal & Private Use Only 67 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 93. गेव्हउ (गेव्ह ) विधि 3 / 1 सक विहवं (विहव) 2 / 1 अवउ (वणी) विधि 3 / 1सक नाम ( अ ) = यद्यपि लीलावहे ( लीलावह) 2 / 2 वि वय-विलासे [ ( वय ) - (विलास ) 2/2] दूमेइ* (दूम) व 3 / 1 सक कह ( श्र) = कैसे णु ( प्र ) = तो भी देव्वो ( देव्व) 1 / 1 गुण- परिउट्ठाई [ ( गुण) - (परिउट्ठ) 2 / 2 वि] हिश्रश्राई (हि) 2/2 * कभी कभी वर्तमान काल का प्रयोग विधि श्रर्थ में किया जाता है | 94. 95. ( उव्विश्रंताण ) ] खणमेतं ( क्रिविप्र ) = क्षण भर के लिए उवितरण * (उग्विन) वकृ 6/2 मिश्र-विवेश - दुविद्या [ ( णिश्रम ) वि - ( विवेश ) - ( ठुव) भूकृ 1 / 2] गरुप्राण* (गरुप्र ) 6 /2 गुणा (गुण) 1/2 पहट्ट ति ( पट्ट) व 3 / 2 प्रक * कभी कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) 68 = श्रघडि - परावलम | [ (प्रघडि ) + (पर) + (अवलंबा ) ] [ (प्रघडि ) भूकृ - ( पर ) वि - ( अवलंब) 1 / 2] जह ( अ ) - जैसे मह (प्र) जैसे गरुअत्तणेण (गरुग्रत्तरण ) 3 / 1 विहडंति तह ( अ ) = वैसे तह ( अ ) = वैसे गरुप्रारण हवंति (हव) व 3 / 2 अक बद्ध-मूलाम्रो ( बद्धमूल - 1/2 वि कित्ती ( कित्ति ) 1 / 2 * कभी कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है | ( हेम प्राकृत व्याकरण: 3-134 ) (विहड ) व For Personal & Private Use Only (गरुप्र ) → 3 / 2 प्रक 6 / 2 वि असलाहणे * (प्र- सलाह ) 7 / 1 खलु ( प्र ) - सचमुच चिच (प्र) - ही अलि-पसंसाए [ (अलिन) वि- (पसंसा) 3 / 2] बुज्जणो वाक्पतिराज की बद्धमूला ) Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96. (दुज्जण) 1'1 विउणं (विउण) 2/1 वि अपवत्त-गुणे [(अपवत्त) भूकृ अनि-(गुणे) 7/1] सुप्रणो (सुप्रण) 1/1 दुहा (प्र) = दो प्रकार से वि (अ) - भी पिसुणत्तणं (पिसुणत्तण) 2/1 लहइ (लह) व 3/1 सक तण्हा (तण्हा) 1/1 खंडिस (अखंडिन) 1/1 वि प्रागे संयुक्त प्रक्षर (च्चिप्र) के प्राने से दीर्घ स्वर हस्व स्वर हुआ है। च्चिन (प्र) = भी विहवे (विहव) 7/1 अच्चुण्णए (अच्चुण्णम) 2/2 वि वि (अ) = प्राश्चर्य लहिऊण (लह) संकृ सेल (सेल) 2/1 पि (प्र) - भी समारहिऊण (समारुह) संकृ किंव (अ)- क्या गणस्सd (गप्रण) 6/1 प्रारूढं (प्रारूढ) 1/1 a गति अर्थ के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। d कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) 97. जम्मि (ज) 7/1 सवि अविसष्ण हिअनत्तणेण [(प्रविसण्ण) (हिप्रमत्तण) 3/1] ते (त) 1/2 सवि गारवं गारव) 2/1 वलग्गंति (वलग्ग) व 3/2 सक तं (त) 2/1 सवि विसममणुप्तो [(विसम) + (अणुप्तो )] (विसम) 2/1 अणुप्तो (अणुप्त) 1/1 वि गरमाण (गरुष) 6/2 विही (विहि) 1/1 खलो खिल) 1/1 होइ (हो) व 3/1 प्रक a कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का . प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-135) d कभी कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) लोकानुभूति 69 For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98. रमइ (रम) व 3/1 अक विहवी (विहवि) 1/1 वि विसेसे (विसेस) 7/1 वि थिइ-मेत्तं [(थिइ)-(मेत्त) 2/1] योग-वित्थरो [(थोअ) वि-(वित्थर) 1/1 वि] महइ (मह) व 3/1 सक मग्गइ (मग्ग) व 3/1 सक सरीरमधणो [(सरीरं) + (अधणो)] सरीरं (सरीर) 2/1 अधणो (अधण) 1/1 वि रोई (रोई) 1/1 वि जीए (जीप) 7/1 चिन (प्र) = ही कप्रत्यो [(क) + (अत्यो ] कप्रत्थो (कप्रत्थ) 1/1 वि 99. विरसाअंसा [ (विरस) + (अप्रता) ] [ (विरस) वि-(प्रअ) वक 1/2 ] बहलत्तणेण (बहलत्तण) 3/1 हिपए (हिप) 7/1 खलंति (खल) व 3/2 अक परिप्रोहा (परिप्रोह) 1/2 थोपविहवत्तणेणं [ ( थोन ) वि-(विहवत्तण ) 3/1 ] सुहंभरप्प [(सुहंभर) + (अप्प)] [(सुहंभर) वि-(अप्प) 1/2 पागे संयुक्त अक्षर (च्चिन) के आने से दीर्घ स्वर हस्व स्वर हुआ है । ] सुगंति (सुण) व 3/2 सक 100. विरसम्मि (विरस) 7/1 वि वि (अ) - भी पडिलग्गं (पडिलग्ग) 1/1 वि ग (अ)- नहीं तरिजिइ (तर) व कर्म 3/1 सक कह (अ)- कैसे वि (अ) = भी नं (ज) 1/1 सवि णिवत्तेउं (रिणवत्त) हेक हिस्स (हिप्रम) 6/1 तस्स (त) 6/1 सवि तरलत्तणम्मि (तरलतण) 7/1 मोहो (मोह) 1/1 इह (इम) 7/1 सवि जगस्स (जण) 6/1 बापतिराज की For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वापतिराज को लोकानुभूति एवं गउडवहो का गाथानुक्रम 26 A 72 32 75 34 गउडवहो गउडवहां क्रम क्रम गाथाक्रम गाथाक्रम 62 874 63 -27 875 64 876 877 878 71 879 880 73 .33 881 882 76 35 883 11 77 36 884 12 78 37 885 79 38 887 -14 858 39 812 15 859 40 893 16 860 894 862 895 863 996 864 900 20 865 902 866 46 903 22 . 867 47 871 906 24 872 49 907 25 873 908 ___1. गउडवहो : वापतिराज (सम्पादक : प्रोफेसर-नरहर गोविन्द सुरु) . (प्राकृत पथ परिषद, महमदाबाद) -13 41 17 42 43 18 19 44 A5 21 905 23 48 50 लोकाानुभूति 71 For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गउडवहा गाथाक्रम 945 52 . 952 63 .78 54 80 56 मउडवहो गाथाक्रम 909 910 911 913 914 915 916 917 918 919 922 923 924 81 57 82 83 84 58 59 60 61 62 85 86 . 63 87 88 89 925 954 955 958 960 961 962 963 964 967 968 969 970 971 972 974 975 976 979 983 989 991 993 994 64 65 66 67 १0 91 92 93 68 6 926 927 930 935 936 937 938 939 940 96 97 gn2848 941 99 942 100 मापतिराम की For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० जणम्मि ढिएहिं 22 64 शुद्धि-पत्र गाथा पंक्ति प्रमुख 8 23 । जण्णम्मि 14 351 ठ्ठिएहिं 1644 1 विहवारूडारण 18 ____48 2 घालंति प्रणज्जेस 65 1 परिहोडजलामो 30 82 गुणभावा 84 . त उग्गमो 84 भगम्मि गरूपारण 40 ज) 6/1 (ज) 4/1 41 9 .2 (न) 6/1 24 विहवारूढाण घोलंति प्रणज्जेसु परिहोउज्जलामो गुणभावो तेउग्गमो . मंगम्मि गरुपारण (ज) 6/2 (ज) 4/2 (त) 6/2 34 41 48 33 33 3 37 वास्तव ये (लासस) (णिहान) 4/2 = ती (उण्णा ) 1/2 (दलिद्द) घाव . पहति वास्तव में (लालस) (णिहाम) 4/1 = तो (उण्णम) 1/2 (दालिद्द) धाव पपट्टति 54 50 .4 5862 - 1 68 92 . 4 लोकानुभूति .. For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक पुस्तकें एवं कोश 1. गउडवहो वाक्पतिराज : (संपादक : प्रोफेसर नरहर गोविंद सुरु) (प्राकृत ग्रंथ परिषद्, अहमदावाद) 2. हेम प्राकृत व्याकरण : व्याख्याता श्री प्यारचन्दजी महाराज भाग 1-2 . (श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, मेवाड़ी बाजार, ब्यावर राजस्थान) 3. प्राकृत भापात्रों का व्याकरण : डा. भार० पिशल (बिहार-राष्ट्र भाषा परिषद्, पटना) 4. अभिनव प्राकृत व्याकरण : डा० नेमिचन्द्र शास्त्री (तारा पब्लिकेशन वाराणसी) 5. प्राकृत भाषा एवं साहित्य : डा० नेमिचन्द्र शास्त्री का पालोचनात्मक इतिहास (तारा पब्लिकेशन, वाराणसी) 6. प्राकृतमार्गोपदेशिका : पं० बेचरदास जीवराज दोशी (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) 7. संस्कृत निबन्ध-दशिका : वामन शिवराम प्राप्टे (रामनारायण वेनीमाधव, इलाहाबाद) 8. प्रौढ-रचनानुवादकौमुदी : डा. कपिलदेव द्विवेदी (विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी) 9. पाइम-सह-महण्णवो : पं० हरगोविन्ददास विक्रम चन्द सेठ (प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी) 10. संस्कृत हिन्दी कोश : वामन शिवराम प्राप्टे (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) 11. Sanskrta-English : M. Monier Williams Dictionary (Munshiram Manoharlal, New Delhi) . 12. बृहद् हिन्दी कोश : सम्पादक : कालिका प्रसाद प्रादि (ज्ञानमण्डल लिमिटेड, बनारस) For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर -: प्रद्यावधि प्रकाशित ग्रंथ :1. कल्पसूत्र सचित्र (मूल, हिन्दी एवं अंग्रेजी अनुवाद 200.00 तथा 36 बहुरंगी चित्रों सहित) अप्राप्य सम्पादक एवं हिन्दी अनुवादक : महोपाध्याय विनयसागर, अंग्रेजी अनुवादक : डा० मुकुन्द लाठ 2. राजस्थान का जैन 30-00 साहित्य 3. प्राकृत स्वयं शिक्षक लेखक-डॉ. प्रेम सुमन जैन 15-00 4. प्रागन तीर्थ अनु० डॉ० हरिराम आचार्य 10.00 5 स्मरण कला अनु० मोहन मुनि शार्दूल 15.00 6. जैनागम दिग्दर्शन (45 जैनागमों का सजिल्द 20-00 संक्षिप्त परिचय) सामान्य 16-00 ले० डॉ मुनि नगराजजी 7. जैन कहानियां ले० उपाध्याय महेन्द्र मुनि 4-00 8. जाति स्मरण ज्ञान ले० उपाध्याय महेन्द्र शुनि 3.00 9. हाफ ए टेल (अर्धकथानक) (कवि बनारसीदास रचित स्वात्म- 150.00 अर्धकथानक का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद) सम्पादक एवं अनुवादक : डॉ० मुकुन्द लाठ 10. गणधरवाद ले० दलसुखभाई मालवणिया 50.00 अनु० प्रो० पृथ्वीराज जैन सम्पादक-महोपाध्याय विनयसागर 11. जैन इन्सक्रिप्सन्स प्राफ ले० रामबल्लभ सोमानी 70-00 राजस्थान 12 एग्जेक्ट सायन्स फ्रोम ले० प्रो० लक्ष्मीचन्द जैन 15.00 जैन सासेज पार्ट I. बेसिक मेथेमेटिक्स For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. प्राकृत काव्य मजरी ले० डा० प्रेम सुमन जैन 14. महावीर का जीवन प्राचार्य काका कालेलकर सन्देश : युग के सन्दर्भ में ... 15. जैन पोलिटिकल थोट डॉ० जी० सी० पाडे 16. स्टडीज् माफ जैनिज्म डॉ० टी०जी० कलघटगी 17. जैन, बौड और गीता . डॉ० सागरमल जैन का साधना मार्ग 18. जैन, बौद्ध और गीता डॉ. सागरमल जैन का समाजदर्शन 19. जैन, बौद्ध और गीता डॉ. सागरमल जेन का कर्म सिद्धान्त 20-21. जैन, बौद्ध और गीता • डॉ० सागरमल जैन के प्राचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग 1-2 . 22. हेम प्राकृत व्याकरण में उदयचन्द्र जैन शिक्षक 23. प्राचारांग चयनिका डॉ० के० सी० सोगाणी 1. एक हजार रुपये से अधिक प्रकाशन खरीदने पर 40% कमीशन संस्थान के प्रकाशनों का पूरा सेट खरीदने पर 30% कमीशन जाता है। 2. डाक-व्यय एवं पैकिंग व्यय पृथक् से होगा। प्राप्ति स्थान : राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान 3826 यति श्यामलालनी का उपासरा, मोतीसिंह भोमियों का रास्ता, जयपुर-3 पिन कोड नम्बर-302 003 For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 再看一重重」 VIELLEIRA [ T [] . 4. 一 「對「 -1 . 11-11L 1. 」自: =于世了,直到十一了事實上, 4 萬 ] ,身上。 一書,作者一事中有一种中国 中非事可与青 --:11, Tain , 14: 馬 手上了。” 在法国 PEN 了 . 可到下雨生 件: n idB 后面的研 自己看一看 =||| 上市 ( 4 141 |-| - - 上 . 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