SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का अनादर करते हैं. इससे वे अच्छे लोग प्रशान्त भी होते हैं। पर अधिकारियों द्वारा दुष्टों का सम्मान देखकर वे अच्छे लोग एक क्षण में ही शान्त हो जाते हैं (27)। यह अजीब बात है कि अधिकारियों के हृदय सज्जनों का सम्मान सहन . नहीं कर सकते हैं, इसीलिए वे सज्जनों से दूर हट जाते हैं । यह ऐसे ही हैं जैसे कोई बोझ के भय से प्राभूषणों का त्याग कर देता हो (31) । अधिकारी दूसरे के गुणों को व्यक्त करने में बहुत कुटिल होते है (32)। गुणों के प्रागार महापुरुष : महापुरुष गुणों के प्रागार होते हैं। वे दूसरे के छोटे गुण से भी प्रसन्न हो जाते हैं, किन्तु अपने बड़े गुण में भी उनको संतोष नहीं होता है। इस तरह से वे शीलवान् और विवेकवान् होते हैं (10) । महापुरुषों के गुणों से सर्व प्रथम उत्तम प्रात्माएँ ही प्रभावित की जाती हैं, उनके गुण सामान्य व्यक्तियों में तत्पश्चात् ही प्रकट होते हैं, ठीक ही है, चन्द्रमा की किरणें पहले पर्वत के ऊपरी भाग पर जाती हैं, फिर धरती पर (11)। महापुरुष पर का कल्याण करने वाले होते हैं (12)। अपने हृदय की विशालता के कारण लोगों के विषय में वे अपनी सम्मतियां प्रकट नहीं करते हैं । ठीक ही है, प्रकाश की मन्द किरणें महाभवनों में ही फिरती हैं वे बाहर नहीं आती हैं (48)। प्रत्यन्त प्रोजस्वी होने के कारण महापुरुषों की योजनाएं सफल नहीं होती हैं। ठीक ही है, पुष्कलता के कारण बिजली का प्रकाश प्रांखों को चकाचौंध कर देता है (49) । महान लोग (महापुरुष) इच्छापूर्वक ही लक्ष्मी का त्याग करते हैं (50)। यदि महान लोगों को समाज कोई उपहार देता है, तो वे उस उपहार को बहुत बड़ा दर्शाते हैं (57) । यदि महान लोगों पर दुःख पाते हैं, तो भी वे सुखपूर्वक ही रहते हैं (71)। वाक्पतिराज लोक में देखते हैं कि गुणों में महान व्यक्ति मानव जाति का उपकार करने वाले होते हैं, फिर भी यह प्राश्चर्य है कि वे उच्च स्थान को प्राप्त नहीं करते हैं और कभी-कभी उनके लिए जीविका का साधन भी नहीं होता है (53)। महापुरुष जिन लोकानुभूति , (iii) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004171
Book TitleVakpatiraj ki Lokanubhuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1983
Total Pages96
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy