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________________ 53. (यद्यपि) गुणों में महान् (व्यक्ति तो) मानव जाति के अन्दर उपकार करने वाले हुए (है) (फिर भी) आश्चर्य ! (वे) न केवल उच्च स्थान को नहीं पहुंचे हैं) (पर) काल-दोष से (उन्होंने) जीविका का साधन भी नहीं पाया है। 54. (मनुष्य) जिन (घरों) में उत्सुकता से प्रवेश करता है, (किन्तु) छिन्न प्राशापों से ही बाहर निकलता है, उन (घरों) से क्या लाभ ? जिन (घरों) में पूर्ण संतोष (होता है) वे (ही) वास्तव में) घर (हैं)। 55. (यदि कोई) किन्हीं के लिए भी उदार भाव को छोड़ता है, सरलता और दया को त्याग देता है, (तो) (ऐसे मनुष्यों से) दूर भागती हुई पृथ्वी भी पापों से स्पर्श करदी जाती है। 56. जघन्य (व्यक्ति) के लिए सुलभ भी (वस्तु) जब महान् (व्यक्ति) के लिए थोड़ी सी (भी) सिद्ध नहीं होती है. तब (वे) विस्मित हुए प्रांतरिक रूप से ही हंस कर चुपचाप बैठ जाते हैं । 57. महान् (लोग) प्राप्त किए गए उपहार को अभिलाषा से (प्रत्यधिक) बड़ा (उपहार) सज्जनों को दर्शाते हैं जैसे मोम-रचना के द्वारा देखा गया उत्तम मणियों का प्रतिबिंब (बड़ा दिखाई देता है)। 58. पाश्चर्य ! दुष्ट पुरुष नीच-संगति में ही प्रसन्न होते हैं, (यद्यपि) सज्जन (उनके) निकट (होते हैं)। वह निश्चय ही (उनकी) स्वेच्छाचारिता है कि रत्नों के सुलभ होने पर (भी) (उनके द्वारा) कांच ग्रहण (किया जाता है)।.. लोकानुभूति 21 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004171
Book TitleVakpatiraj ki Lokanubhuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1983
Total Pages96
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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