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________________ है। प्रतः अल्प दोष को लिए हए मनुष्य की भी प्रशंसा की जा सकती है (80) । गुण और दोष का मापदण्ड बतलाते हुए वापतिराज कहते हैं कि जो मरे हए मनष्यों के विषय में सूने जाते हैं वे दोष हैं और जो जीते हए मनुष्यों के विषय में कहे जाते हैं वे गुण हैं (83)। व्यवहार से ही मनुष्य पहिचाना जाना चाहिए (84)। यह दुःख की बात है कि इस लोक में लोग केवल मात्र दोषों को देखने वाले होते हैं, यहाँ कोई भी मनुष्य ऐसा दिखाई नहीं देता है जो गुणमात्र को ही ग्रहण करने वाला हो (85)। वास्तव में मनष्य में गरणों की शोभा उसके ईर्ष्या से मुक्त होने पर ही होती है । गणों का अहकार पीड़ाकारक होता है :87)। ईर्ष्यारूपी अपवित्रता को हटाने के लिए विवेकरूपी अग्नि को जलाना जरुरी है (43)। किन्तु ईर्ष्या-भाव मनुष्य पर इतना हावी होता है कि उज्जवल स्वभावी व्यक्ति भी इससे बच नहीं पाते हैं (7)। सत्पुरुष और लक्ष्मी : वाक्पतिराज कहते हैं कि यद्यपि लक्ष्मी महान होती है, तो भी गुणी यक्ति उसको तुच्छ समझते हैं, इसीलिए लक्ष्मी का गुणों से विरोध पैदा हुआ है (61) । लक्ष्मी सत्पुरुष का शीघ्रता से प्रालिंगन नहीं करती है, इसका कारण यह प्रतीत होता है कि सत्पुरुष उसको अपने पास पाने के लिए उपेक्षा भाव से प्राज्ञा देता है (62)। किन्तु यह भी निश्चित है कि सत्पुरुष के प्रभाव में लक्ष्मी भी प्रालंबन रहित अनुभव करती है । क्या किया जाय देव के कारण लक्ष्मी का सत्पुरुष से न चाहा हुअा विरह होता है (63) ? पूज्य लक्ष्मी तो धर्म से उत्पन्न होती है उसका सत्पुरुष से विरोध क्यों होना चाहिए (64) ? यह आश्चर्य है कि लोक में लक्ष्मी का कार्य विपरीतता को लिए हुए होता है। वह किसी के गुणों को दूर हटाती है तथा उसके लिए दोषों को देती है, किसी के दोषों को छुपाती है और उसके लिए प्रसिद्धि देती है (66)। यदि गुणों और लक्ष्मी की तुलना की जाय, तो वाक्पतिराज लोकानुभूति (ix) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004171
Book TitleVakpatiraj ki Lokanubhuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1983
Total Pages96
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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