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65. जो लक्ष्मियाँ विपुल ( हैं ), जो दीर्घ काल तक ( रहती है), जो बहुत
प्रयोग से उज्ज्वल होती हैं, वे (लक्ष्मियाँ) श्राचरण धारण करने वालों के ही (होती हैं), किन्तु जघन्यों के निश्चय ही ( वह) नहीं (होती हैं) ।
( उसके लिए)
66. (लक्ष्मी) (किसी के) कुछ गुणों को दूर हटाती है तथा दोषों को देती है, (किसी के) दोषों को) छुपाती है तथा ( उसको) प्रसिद्धि देती है, लक्ष्मी की यह रचना विपरीत तुल्य देखी जाती है ।
67. एक दूसरे के साथ (तुलना करने पर) लक्ष्मी (और) गुणों में से पूरी संभावना है कि गुण ही दुष्ट हैं, लक्ष्मी नहीं, क्योंकि लक्ष्मी गुणों को ग्रहण करती है, किन्तु गुण लक्ष्मी को नहीं ।
68. दुःख का अभाव सुख नहीं (है), जो (सांसारिक) सुख ( हैं ), वे भी सुख नहीं ( हैं ), ( सांसारिक) सुखों को छोड़कर जो सुख ( हैं ) वे ही सुख ( हैं ) ।
69. सुख की प्रासक्ति की गुरुता होने पर ही दुःख अधिक उग्र होते हैं ( लगते हैं ), ( ठीक ही है) आलोक के अत्यधिक होने पर ही छाया स्थूलता को प्राप्त करती है ।
70. सुख से निवृत्ति ( लिए हुए) कुछ चित्तों में सुख की प्रासक्ति लगातार स्फुरित होती है, जैसे ऊँगलियों से ढके हुए कानों में शब्द लगातार (सुनाई देते हैं) ।
लोकानुभूति
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