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पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है । गाथाम्रों का हिन्दी अनुवाद मूलानुगामी बनाने का प्रयास किया गया है । यह दृष्टि रही है कि अनुवाद पढ़ने से ही शब्दों की विभक्तियाँ एवं उनके अर्थ समझ में आजाएँ । अनुवाद को प्रवाहमय बनाने की भी इच्छा रही है । कहाँ तक सफलता मिली है इसको तो पाठक ही बता सकेंगे । अनुवाद के अतिरिक्त गाथाओं का व्याकरणिक विश्लेषण भी प्रस्तुत किया गया है। इस विश्लेषण में जिन संकेतों का प्रयोग किया गया है, उनको संकेत सूची में देखकर समझा जा सकता है । यह श्राशा की जाती है कि व्याकरणिक विश्लेषरण से प्राकृत को व्यवस्थित रूप से सीखने में सहायता मिलेगी तथा व्याकरण के विभिन्न नियम सहज में ही सीखे जा सकेंगे। यह सर्व विदित है कि किसी भी भाषा को सीखने के लिए व्याकरण का ज्ञान प्रत्यावश्यक है । प्रस्तुत गाथानों एव उनके व्याकरणिक विश्लेषण से व्याकरण के साथ-साथ शब्दों के प्रयोग भी सीखने में मदद मिलेगी । शब्दों की व्याकरण और उनका अर्थपूर्ण प्रयोग दोनों ही भाषा सीखने के प्राधार होते हैं अनुवाद एवं व्याकरणिक विश्लेषण जैसा भी बन पाया है पाठकों के समक्ष है । पाठकों के सुझाव मेरे लिए बहुत ही काम के होंगे ।
आभार :
'वाक्पतिराज की लोकानुभूति' इस पुस्तक के लिए प्रो० नरहर गोविंद सुरु द्वारा संपादित गउडवहो के संस्करण का उपयोग किया गया है । इसके लिए प्रो० सुरु के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ । 'गउडवहो' का यह संस्करण प्राकृत ग्रन्थ परिषद् ग्रहमदाबाद से सन् 1975 में प्रकाशित हुआ है।
मेरे विद्यार्थी डॉ० श्यामराव व्यास, दर्शन विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर का प्रभारी हूँ जिन्होंने इस पुस्तक के हिन्दी अनुवाद एवं उसकी प्रस्तावना को पढ़कर उपयोगी सुझाव दिए । डा० प्रेम सुमन जैन,
लोकानुभूति
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