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वाक्पतिराज चेतना के इस दूसरे प्रायाम के धनी है । उनकी मूल्यामक अनुभूतियां सघन हैं। उनके अनुसार गुण मूल्यवान् हैं, महापुरुष गुणों के प्रागार होते हैं, सत्पुरुष गुणों के लिए प्रयत्नशील होते हैं। वाक्पतिराज वंभव एवं धन को साधन-मूल्य के रूप में स्वीकार करते हैं । उनके लिए काव्यरस साध्य मूल्य है। वाक्पतिराज शाश्वत मूल्यों की अनुभूतियों के चक्षुषों से लोक को देखते हैं और अपने चारों प्रोर के वातावरण को मूल्यात्मक अनुभूतियों के परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास करते हैं । शाश्वत मूल्यों की पृष्ठभूमि से लोक को देखने के फलस्वरूप लोकानुभूतियां उत्पन्न होती हैं। इन्हीं लोकानुभूतियों की चर्चा वापतिराज ने की है । ये अनुभूतियाँ गम्भीर हैं और ऐसा प्रतीत होता है मानो वाकपतिराज वर्तमान में ही लोक का निरीक्षण कर रहे हों। इस प्रकार की कालातीत अनुभूतियां उनके हृदय में प्रस्फुटित हुई हैं। वे गुणवानों को देखते हैं, महापुरुषों के बारे में सोचते हैं, शासकों तथा अधिकारियों के प्रति खिन्नता प्रकट करते हैं। उनके विचार से मूल्यों में गिरावट के लिए शासक एवं अधिकारी ही जिम्मेदार हैं। अब हम यहाँ 'वाक्पतिराज की लोकानुभूति' में चयनित अनुभूतियों की चर्चा करेंगे । गुण और गुणी व्यक्ति :
वाक्पतिराज का कहना है कि गुणी व्यक्ति गुणों का जानकार अपने में गुणों को प्रकट करने से होता है, किन्तु दुष्ट व्यक्ति पर-गुणों का उल्लेख
1 वाक्पतिराज ने प्राकृत के महाकाव्य गउडवहो की रचना ई० सन् 736 के प्रास-पास की थी। इस महाकाव्य में 1209 गाथाएं हैं। यद्यपि यह एक प्रशस्ति काव्य है, तथापि उस काल में अनुभूत मूल्यों का वर्णन वापतिराज ने इसमें बड़ी ही कुशलता से किया है । "As Pandit observes this is one of the best and most remarkable parts of the poem and abounds in sentiments of the very highest order" (पृष्ठ XXXI) ग उडवहो : सम्पादक : सुरु, (प्राकृत ग्रन्थ परिषद, अहमदाबाद) इन्हीं मूल्यों सम्बन्धी गाथानों में से हमने 100 गाथानों का चयन 'वाकपतिराज को लोकानुभूति' शीर्षक के अन्तर्गत किया है ।
लोकानुभूति
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