Book Title: Vakpatiraj ki Lokanubhuti
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 88
________________ 96. (दुज्जण) 1'1 विउणं (विउण) 2/1 वि अपवत्त-गुणे [(अपवत्त) भूकृ अनि-(गुणे) 7/1] सुप्रणो (सुप्रण) 1/1 दुहा (प्र) = दो प्रकार से वि (अ) - भी पिसुणत्तणं (पिसुणत्तण) 2/1 लहइ (लह) व 3/1 सक तण्हा (तण्हा) 1/1 खंडिस (अखंडिन) 1/1 वि प्रागे संयुक्त प्रक्षर (च्चिप्र) के प्राने से दीर्घ स्वर हस्व स्वर हुआ है। च्चिन (प्र) = भी विहवे (विहव) 7/1 अच्चुण्णए (अच्चुण्णम) 2/2 वि वि (अ) = प्राश्चर्य लहिऊण (लह) संकृ सेल (सेल) 2/1 पि (प्र) - भी समारहिऊण (समारुह) संकृ किंव (अ)- क्या गणस्सd (गप्रण) 6/1 प्रारूढं (प्रारूढ) 1/1 a गति अर्थ के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। d कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) 97. जम्मि (ज) 7/1 सवि अविसष्ण हिअनत्तणेण [(प्रविसण्ण) (हिप्रमत्तण) 3/1] ते (त) 1/2 सवि गारवं गारव) 2/1 वलग्गंति (वलग्ग) व 3/2 सक तं (त) 2/1 सवि विसममणुप्तो [(विसम) + (अणुप्तो )] (विसम) 2/1 अणुप्तो (अणुप्त) 1/1 वि गरमाण (गरुष) 6/2 विही (विहि) 1/1 खलो खिल) 1/1 होइ (हो) व 3/1 प्रक a कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का . प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-135) d कभी कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) लोकानुभूति 69 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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