Book Title: Vakpatiraj ki Lokanubhuti
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 86
________________ 89. दविणोवप्रार- तुच्छा [ (दविण) + (उपचार) + (तुच्छा ) ] [ (दविण ) - (उवनार)-(तुच्छ) 1/2 वि] वि ( अ ) - यद्यपि सज्जणा ( सज्जण) 1/2 एत्तिएण (एतिप्र ) 3 / 1 वि धीरेंति (धीर) व 3 / 2 अक जं (प्र) - कि ते (त) 1/2 स मित्र - गुण - लेसेहि [ (रिम) वि - ( गुण) - (लेस) 3/2] देंनि (दा) व 3 / 2 सक कारणं ( क ) 4 / 2 सवि पि (अ) = ही परिश्रो ( परिस) 2 / 1 1 90. दूमंति (दूम) व 3 / 2 सक सज्जणार* (सज्जरण ) 6 / 2 पम्हुसिनदer * [ (सि) भूकृ - (दसा ) 6 / 2] तोस- कालम्मि [ ( तोस ) - ( काल ) 7 / 1 ] दाणार-संभम दिट्ठ- पास सुण्णाई ( अमर ) + ( संभम) + (दिट्ठ) + (पास) + (सुणाई) ] ( श्राश्रर) - ( संभम) - ( दिट्ठ) भूक अनि - ( पास ) - ( सु० ) विलिश्राइं (विलिन ) 1/2 [ ( दारण) - 1 / 2 ] * कभी कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-134) 91. [ सइ (अ) = सदा जाढर-चिताअड्ढि 2. ( जाढर) वि - ( चिंता ) - (अड्ढि ) 1 / 1 वि] व ( अ ) = तथा हिश्रश्रं (हिम) 1 / 1 ग्रहो ( अ ) = नीचे मुहं (मुह ) 1 / 1 जाण ( ज ) 6 / 2 सवि उधुर - चित्ता [ ( उधर ) वि- (चित्त) 1 / 2] कह ( अ ) - कैसे णाम (अ) = संभावना होतुं (हो) विधि 3/2 अक ते सुरण ववसाया [ (सुण्ण) वि - ( ववसाय ) 5 / 1] (त) 7/2 सवि Jain Education International ( दारण) + 92. लोए (लोभ) 7/1 प्रमुणित्र सारत्तणेण [ ( प्र- मुणिश्र) भूकृ( सारण ) 3 / 1] खणमेत्तमुव्विश्रंताण* [ ( खणमेत्तं ) + लोकानुभूति For Personal & Private Use Only 67 www.jainelibrary.org

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