Book Title: Vakpatiraj ki Lokanubhuti
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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87.
88.
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सज्जरगं (सज्जरण) 2/1 सुवुरिसा (सुवुरिस) 1 / 2 पसंसंति (पसंस) व 3 / 2 सक पडबंध - मिश्रद्ध [ ( पडिबंध) + (मिश्र) + ( श्रद्ध' ) ]
को (क) 1 / 1 सवि
[ ( पडिबंध) - (मिश्र) भूकृ ( श्रद्ध) 2 / 1] वा (प्र) = कभी रणं ( रमण ) 2 / 1
3/1 सक
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सोहइ (सोह)
व 3 / 1
ग्रक प्रदोस भावो [ ( श्रदोस ) वि - (भाव) 1 / 1 ] गुणो ( गुरण) 1 / 1 ब्व (अ) - तथा जइ (प्र) - यदि होइ (हो) व 3 / 1 अक मच्छरुत्तिष्णो [ ( मच्छर ) + (उत्तिष्णो ) ] [( मच्छर ) - (उत्तिष्ण) 1 / 1 वि] विहवेसु (विहव) 7 / 2 व (प्र) = जैसे गुणेसु * ( गुण) 7/-2 वि (प्र) = भी दूमेइ ( दूम) व 3 / 1 सक ठिम्रो ठि) 1 / 1 वि अहंकारो (अहंकार) 1 / 1
* कभी कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-135)
विश्रारेड ( विचार ) व
जेण ( अ ) = चूँकि गुणग्धविप्राण [ ( गुण ) + ( अग्धविचारण)] [ ( ग ) - ( प्रग्धविश्र ) 6 / 2 वि] वि ( अ ) = यद्यपि ण ( अ ) = नहीं गारवं (गारव) 1 / 1 धण - लवेण [ ( धरण ) - ( लव) 3 / 1] रहिश्राण (रह ) भूकृ 6 / 2 तेण (प्र) = इसलिए विहवाण (विहव) 4 / 2 मिमी (म) व 1 / 2 सक तेर (त) 3 / 1 सवि चित्र (श्र ) - ही होउ (हो) व 3 / 1 श्रक विवैeिd ( विहव) 3 / 2
-
a 'नमस्कार' के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है ।
कभी कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकररण : 3-136)
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वाक्पतिराज की
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