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97 अखिन्न हृदयता से जिस (कठिन स्थिति) को (महापुरुष) ग्रहण करते
हैं, (उमसे) वे महत्व को प्राप्त करते हैं, (किन्तु) उस कठिन स्थिति को महापुरुषों से दूर नहीं हटाता हुआ विधि दुष्ट होता है ।
98 धनाड्य प्रचुर (भोगों) में क्रीडा करता है, थोड़ा विस्तार युक्त (व्यक्ति)
स्थिरता मात्र को चाहता है, निर्धन (स्वस्थ) देह को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है (तथा) रोगी जीने में ही इच्छुक (होता है।।
99. (धनाड्य के लिए) (जो) भोग-(वस्तुएँ) (उनकी) अत्यधिकतो के
कारण निरस (स्थिति) को प्राप्त करती हुई हैं), (वे) हृदय में डगमगा जाती हैं, (किन्तु) थोड़ी वैभवता के कारण व्यक्ति सुखी ही (होते हैं)। (इस बात पर सभी) ध्यान देते हैं।
100. नीरस (वस्तु) में भी लगा हुप्रा जो (हृदय) (उससे) हट जाने के लिए
कैसे भी समर्थ नहीं किया जाता है, उस हृदय की इस चंचलता में मनुष्य का मिथ्या विश्वास (ही) (प्रतीत होता है)।
लोकानुभूति
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