Book Title: Vakpatiraj ki Lokanubhuti
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 70
________________ 42. अगुण-कज्जे [(अ-गुण)-(कज्ज) 7/1] णिबद्ध-माहप्प [(णिबद्ध) भूकृ प्रानि-(माहप्प) 1/2] विवरीनं (विवरीअ) 2/1 वि उप्पत्ति (उप्पत्ति) 2/1 गुणाणत (गुण) 6/2 इच्छंति (इच्छ) व 3/2 सक कावुरिसा (कावुरिस) 1/2 । a कभी कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-135) d कभी कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पंचमी विभक्ति के स्थान पर पाया जाता है । (हेम प्राकृत ध्याकरण : 3-134) गुण-संभवो [ (गुण)-(संभव) 1/1] मनो (मन) 1/1 सुपुरिसाण (सु-पुरिस) 6/2 संकमइ (संकम) व 3/1 सक णेन (अ) = कभी नहीं हिअम्मि (हिप्र) 7/1 तेण (अ) - इस तरह अणिम्वूढ-मन [(प्र-णि ठवूढ) भूकृ अनि-(मप्र) 5/1 आगे संयुक्त अक्षर व्व के प्राने से दीर्घ स्वर ह्रस्व हुआ है] व्व (अ) = भी ताण (त) 6/2 सवि गरुपा (गरुन) 1/2 वि गुणा (गुण) 1/2 होंति (हो) व 3/2 अक * किसी कार्य का कारण बतलाने के लिए संज्ञा शब्द में तृतीया या पंचमी का प्रयोग किया जाता है । 43. ता (अ) = तब तक चेन (अ) - ही मच्छर-मलं [(मच्छर)-(मल) 1/1] जाव (अ) = जब तक विवेपो (विवेन) 1/1 फुडं (अ) = स्पष्ट रूप से ण (अ) = नहीं विफ्फुरइ (विप्फुर) व 3/1 अक मलिनं (जल) भूक 1/1 च (अ) = एक ओर भगवा (भअवमा) 3/1 अनि हुअवहेण (हुअवह) 3/1 धूमो (घूम) 1/1 4 - (अ) = दूसरी ओर विणिप्रत्तो (विणिप्रत्त) भूकृ 1/1 अनि लोकानुभूति 51 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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