Book Title: Vakpatiraj ki Lokanubhuti
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 77
________________ अव्यय धावंती (घाव) वकृ 1/1 रहसेण (क्रिवित्र) = वेग से सिरी (सिरी) 1/1 परिक्खलइ (परिक्खल) व 3/1 प्रक . * गत्यार्थक क्रियाओं के योग में द्वितीया विभक्ति होती है । गण (प्र)=निस्संदेह गासमणवलंबा [ (णासं) + (अणवलंबा) ] णासं (णास) 2/1 प्रणवलंबा (अण:-अवलंबा) 1/1 वि एइ (ए) व 3/1 सक च्चिन (अ) = बिल्कुल सा (ता) 1/1 स वि (भ) - भी सुरिसाभावे [(सुवुरिस) + (मभावे)] [(सुवुरिस)-(प्रभाव) 7/1] देव-वसा [(देव)-(वसा) क्रिविन = के कारण] तेण (त) 3/1 स सिरीए (सिरी) 6/1 होइ (हो) व 3/1 अक णासंसियो [(णा) + (प्रासंसियो)] णा (प्र) = नहीं प्रासंसियो (प्रासंसिन) 1/1 वि विरहो (विरह) 1/1 64. धम्म-पसूपा [(धम्म)-(पसूत्रा) 1/1 वि] कह (अ) = कैसे होउ (हो) विधि 3/1 अक भगवई (भप्रवई) 1/1 वेस सज्जणा [(वेस)-(सज्जण) 5/1] लच्छी (लच्छी) 1/1 ताप्रो (ता) 1/2 सवि अलच्छिनो (अलच्छि) 1/2 चिन (अ) = ही लच्छि-णिहा [(लच्छि)-(णिहा) 1/2 वि] जा (जा) 1/2 सवि अणज्जेस (मणज्ज) 7/2 वि 65. जा (जा) 1/2 सवि विउला (विउला) 1/2 जामो (जा) 1/2 सवि चिरं (अ) = दीर्घ काल तक जा (जा) 1/2 सवि परिहोउज्जलानो [ (परिहोस) + (उज्जलामो) ] [ (परिहोस)(उज्जला) 1/2 वि] लच्छीओ (लच्छी) 1/2 प्रापारघराणं 58 वाक्पतिराज की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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