Book Title: Vakpatiraj ki Lokanubhuti
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
View full book text
________________
13. पासम्मि अहंकारी होहिइ कह वा गुणाण विवरुक्खे।
मव्वं ण गुणि-गम-मयो गुणत्यमिच्छंति गुण-कामा ।
14. मोह-सलाहाहि तहा पहुणो पिसुणेहि वेलविज्जतिः ।
जह णिव्वडिएस वि गिन-गुणेसु ते किं प चितेति ।।
15. मुलहं हि गुणाहाणं सगुणाहाराण णणु परिंदाण।
भग्गेसिअव्व-मग्गा कत्तो वि गुमा दाराम ।।
16. तं खलु सिरीएँ रहस्सं सुचरिप्र-मगणेक-हियो वि।
अप्पाणमोसरंतं । गुहिं लोमो ण लक्खेइ ।।
17. लोएहि अगहिचिन सीलमविहव-ट्ठिअंपसणं पि ।
सोसमुवेइ तहिचिन कुसुमं व फलग्ग-पडिलग्गं ।।
18. णिच्चं धण-दार-रहस्स-रक्खणे संकिणो वि अच्छरिग्रं।
पासण्ण-गीम-वग्गा जं तहवि गराहिवा होंति ॥
वाक्पतिराज को
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96